-कुलदीप चंद अग्निहोत्री-
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भारतीय जनता पार्टी से क्या संबंध है, यह प्रश्न 1950 के बाद से ही उठता बैठता रहा है। जून 1975 में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक निर्णय ने इंदिरा गांधी की लोकसभा की सदस्यता समाप्त कर दी, तब उसने प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र देने की बजाय देश में आंतरिक आपात स्थिति की घोषणा कर दी। संविधान के प्रमुख प्रावधान स्थगित कर दिए और लाखों लोगों को जेल में डाल दिया। कांग्रेस के उस समय के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने तो देश में घूम-घूम कर प्रचार करना शुरू कर दिया था कि ‘इंदिरा ही भारत है और भारत ही इंदिरा है’। जब कांग्रेस को विश्वास हो गया कि पूरा देश पूरी तरह उसके शिकंजे में फंस गया है तो सरकार ने लोकसभा चुनावों की घोषणा कर दी। देश में लोकतंत्र के अस्तित्व को ही खतरे में देख देश के चार प्रमुख राजनीतिक दलों ने विलय कर जनता पार्टी के नाम से नए दल की स्थापना की। नए दल में भारतीय जनसंघ और समाजवादी पार्टी भी शामिल थीं। चुनाव में कांग्रेस पराजित हो गई और जनता पार्टी जीत गई। भारतीय जनसंघ में बहुत से ऐसे लोग भी थे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। समाजवादी पार्टी के लोगों ने मांग करनी शुरू कर दी कि ऐसे लोग जनता पार्टी के सदस्य तभी रह सकते हैं यदि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सदस्यता से त्यागपत्र दें। इसे उन्होंने तथाकथित दोहरी सदस्यता का मामला बताया। जनसंघ के वे लोग जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे, का कहना था कि संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है और न ही उसकी सदस्यता के लिए आवेदन करना पड़ता है।
दरअसल संघ में सदस्यता की वह अवधारणा है ही नहीं, जिस प्रकार की अवधारणा राजनीतिक दलों में है। जो व्यक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में आता है, वह संघ का स्वयंसेवक है, सदस्य नहीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कोई राजनीतिक संगठन नहीं है, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन है। राजनीतिक दलों के लोग अनेक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से विभिन्न गतिविधियों के लिए जुड़े रहते हैं। अब यदि कोई यह मांग करे कि राजनीतिक दल के लोगों को देश की सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से नाता तोड़ लेना चाहिए, तो उसकी यह सोच विकृत सोच ही कही जाएगी। इसके विपरीत राजनीतिक लोगों को तो देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से और भी गहराई से जुडऩा चाहिए, तभी वे देश के स्वभाव और प्रकृति को समझ पाएंगे। यदि देश का कोई दल देश के स्वभाव और प्रकृति से ही दूर हट जाएगा, तो वह देश के लोगों का प्रतिनिधि होने का दावा किस प्रकार कर सकेगा, लेकिन जिन लोगों ने राजनीति ही पश्चिम के देशों के संकल्पों में से सीखी हो, वे भारतीय मानस को पढ़ नहीं पा रहे थे और देश के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से छिटकी राजनीतिक संस्थाएं निर्माण कर रहे थे। भारतीय जनसंघ के उन लोगों ने जो राष्ट्रीय संवयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे, संघ से संबंध विच्छेद करने की मांग को स्वीकार नहीं किया। वे जनता पार्टी से बाहर आ गए। उनके साथ बहुत से ऐसे लोग भी बाहर आ गए जो संघ के स्वयंसेवक तो नहीं थे, लेकिन सिद्धांत के तौर पर इस मांग से सहमत नहीं थे कि राजनीतिक क्षेत्र के लोगों को देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से संबंध विच्छेद कर लेना चाहिए। बल्कि इस पूरे विवाद के कारण देश के समाज विज्ञानियों में यह बहस छिड़ गई कि मोटे तौर पर देश की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं देश के बृहत्तर समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं और राजनीतिक दल स्टेट का।
देश में समाज बड़ा है या स्टेट? समाज के नियंत्रण या समाज के जीवन मूल्यों से दूर जाकर तो राजनीति, राजनीति नहीं बल्कि शैतान नीति बन कर रह जाएगी और अंतत: तानाशाही की ओर अग्रसर हो जाएगी। लेकिन इस विवाद का अंतिम परिणाम यह हुआ कि इन सब लोगों ने मिल कर एक नए राजनीतिक दल, भारतीय जनता पार्टी का गठन कर लिया। इस विवाद का दूसरा परिणाम यह हुआ कि अगले चुनावों में जनता पार्टी पराजित ही नहीं हुई, बल्कि अल्पकाल में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। इस पराजय का विश्लेषण दो प्रकार से किया गया। पहला विश्लेषण यह था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जनता पार्टी का समर्थन करना बंद कर दिया, इसलिए वह पराजित हो गई और कालगति को प्राप्त हुई। लेकिन दूसरा विश्लेषण था कि जनता पार्टी ने सिद्धांतत: स्वयं को देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से दूर कर लिया, इससे वह कालगति को प्राप्त हुई। मुझे लगता है कि दूसरा विश्लेषण ज्यादा सही कहा जा सकता है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने देश के राजनीति विज्ञान के पंडितों के आगे एक दूसरा प्रश्न भी खड़ा कर दिया। कुछ राजनीतिक पंडितों का कहना था कि यदि कोई राजनीतिक दल देश की सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़ा रहता है तो वह सांप्रदायिक हो जाता है। लेकिन दूसरे राजनीतिक पंडितों का कहना था कि यदि राजनीतिक दल देश के सांस्कृतिक जीवन से टूट जाता है तो वह देश के लिए ही अप्रासंगिक हो जाता है, जैसे जनता पार्टी देश के लिए अप्रासंगिक हो गई। दरअसल ऐसा भी कहा जाता है कि राजनीति किसी भी देश के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का केवल एक हिस्सा है। समग्र स्वरूप देश का सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष ही है।
पश्चिमी देशों के पिछले पांच-छह सौ साल के राजनीति विज्ञान के साहित्य को पढऩे से यह धारणा बनती है कि वहां राजनीति को समग्र स्वरूप में स्वीकार किया जाता है और वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को मात्र उसका एक छोटा सा हिस्सा। क्योंकि भारत के विश्वविद्यालयों में भी तीन सौ साल से वही अवधारणाएं परोसी जा रही हैं, संतुलन के लिए भी इन विषयों की भारतीय अवधारणाओं को नहीं पढ़ाया जाता, इसलिए यहां भी तथाकथित थिंक टैंक धीरे धीरे इन्हीं विदेशी अवधारणाओं के आलोक में निष्कर्ष निकालते हैं। लेकिन इसे क्या कहा जाए कि आज लगभग पांच दशकों बाद फिर यही प्रश्न उठ रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का देश की राजनीति से क्या ताल्लुक है? इस प्रश्न की संरचना चाहे अलग प्रकार की है, लेकिन मूल वही है। भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आपस में क्या संबंध है, यह बहस तब शुरू हुई जब संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत ने भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रख कर यह टिप्पणी की कि आधुनिक युग में लोकतंत्र का जो स्वरूप है, उसमें धीरे धीरे विरोधी राजनीतिक दल को शत्रु मान लेने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
यह भारत के सामाजिक जीवन के लिए अंतत: घातक सिद्ध हो सकती है। लोकतंत्र में पक्ष और प्रतिपक्ष होते हैं, मगर ये दोनों परस्पर पूरक होते हैं, न कि एक दूसरे के शत्रु। इसी प्रकार राजसत्ता की प्रकृति की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि राजसत्ता अहंकार को जन्म देती है। अहंकार सब व्याधियों का मूल है। इसलिए राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को अहंकार से बचना चाहिए। मोहन भागवत जी का यह विश्लेषण या टिप्पणियां भारत के राजनीतिक जीवन के सूत्रधारों के लिए विशेष महत्व रखती हैं, लेकिन इन टिप्पणियों के आलोक में संघ और भाजपा के रिश्तों की तलाश करना गलत दरवाजा खटखटाना ही कहा जाएगा। जहां तक लोकसभा चुनावों के बीच और उसके बाद भाजपा को लेकर भाजपा के अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के उस बयान का संबंध है जिसमें उन्होंने कहा था कि जिस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, उस समय भाजपा कमजोर थी, इस कारण हम संघ से सहायता लेते थे, लेकिन अब हम अपने बल पर ताकतवर हो गए हैं, इसलिए अब हमें उनसे सहायता की जरूरत नहीं है, तो यह नड्डा जी की व्यक्तिगत राय ही मानी जानी चाहिए।
(वरिष्ठ स्तंभकार)