जगदलपुर/छत्तीसगढ़ | वेब वार्ता
छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में जगदलपुर से सटे सिड़मुड़ गांव ने धर्मांतरण के बढ़ते मामलों के खिलाफ एक ऐतिहासिक कदम उठाया है। ग्रामसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर बाहरी पादरियों, पास्टर्स और ईसाई धर्म प्रचारकों के गांव में प्रवेश पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया है। गांव के 275 परिवारों ने इस फैसले में एकजुट होकर अपनी आदिवासी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा का संकल्प लिया है। गांव के प्रवेश द्वार पर बोर्ड लगाकर स्पष्ट चेतावनी दी गई है: “पेशा अधिनियम 1996 लागू है, सांस्कृतिक पहचान और रूढ़िगत परंपराओं के संरक्षण के लिए पादरी/पास्टर का प्रवेश वर्जित।” यह निर्णय ग्रामसभा के अधिकारों का उपयोग करते हुए लिया गया है, जो पांचवीं अनुसूची के तहत आदिवासी क्षेत्रों में संस्कृति की रक्षा सुनिश्चित करता है।
यह घटना न केवल सिड़मुड़ गांव की एकजुटता को दर्शाती है, बल्कि देशभर में बढ़ते धर्मांतरण विवादों को भी उजागर करती है। आइए, इस फैसले के पृष्ठभूमि, ग्रामसभा की भूमिका, स्थानीय प्रतिक्रियाओं, और इसके व्यापक प्रभावों को विस्तार से समझते हैं।
घटना की पृष्ठभूमि: धर्मांतरण के बढ़ते मामले और ग्रामीणों का विरोध
सिड़मुड़ गांव, जगदलपुर से लगभग 20 किमी दूर बस्तर के घने जंगलों में बसा एक छोटा सा आदिवासी बहुल गांव है। यहां मुख्य रूप से गोंड और मुरिया आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनकी संस्कृति और परंपराएं प्रकृति पूजा और लोक रीति-रिवाजों पर आधारित हैं। पिछले 2 वर्षों में गांव में धर्मांतरण के मामले बढ़े, जिसके पीछे बाहरी पादरियों और ईसाई मिशनरियों का हाथ माना जा रहा है। ग्रामीणों का आरोप है कि प्रलोभन, आर्थिक सहायता, और शिक्षा के नाम पर आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया जा रहा है।
- मुख्य कारण: ग्रामीणों के अनुसार, पादरी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का लालच देकर धर्मांतरण करा रहे थे। 2024-25 में गांव के 20 से अधिक परिवार प्रभावित हुए।
- ग्रामसभा का फैसला: 20 अक्टूबर 2025 को ग्रामसभा में 275 परिवारों ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया। बोर्ड लगाकर चेतावनी दी गई कि धर्मांतरण या धार्मिक आयोजन के उद्देश्य से प्रवेश वर्जित है।
- कानूनी आधार: पांचवीं अनुसूची के तहत ग्रामसभा को अपनी संस्कृति और परंपराओं की रक्षा का अधिकार है। पेशा अधिनियम 1996 (प्रिवेंशन ऑफ सांस्कृतिक हेरिटेज एंड राइट्स) का हवाला दिया गया।
गांव के सरपंच राम सिंह गोंड ने कहा, “हमारी संस्कृति और आदिवासी पहचान को बचाना हमारा हक है। धर्मांतरण से परिवार बिखर रहे थे।”
ग्रामसभा की भूमिका: आदिवासी क्षेत्रों में सांस्कृतिक रक्षा का हथियार
भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची आदिवासी क्षेत्रों को विशेष दर्जा देती है। इसमें ग्रामसभा को संस्कृति, भूमि, और परंपराओं की रक्षा का अधिकार है। सिड़मुड़ का फैसला इसी का उदाहरण है।
- ग्रामसभा का अधिकार: ग्राम सभा सर्वोच्च निकाय है। यह विकास योजनाओं से लेकर सांस्कृतिक मामलों पर निर्णय ले सकती है।
- पिछले उदाहरण: छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के जामगांव और टेकाठोडा गांवों में भी ग्रामसभा ने पादरियों के प्रवेश पर रोक लगाई। बोर्ड लगाकर चेतावनी दी गई।
- कानूनी वैधता: हाईकोर्ट ने 2017 में राजस्थान में ग्रामसभा के ऐसे फैसलों को मान्यता दी।
विशेषज्ञ डॉ. राम पुनेचा (आदिवासी अध्ययन) ने कहा, “ग्रामसभा का यह फैसला संवैधानिक है। यह सांस्कृतिक संरक्षण का अधिकार है।”
स्थानीय प्रतिक्रियाएं: एकजुटता और विवाद
- ग्रामीणों का पक्ष: 275 परिवारों ने फैसले का समर्थन किया। एक महिला ने कहा, “हमारी परंपराएं हमारी पहचान हैं। प्रलोभन से बचना जरूरी।”
- विपक्ष: कुछ ईसाई संगठनों ने इसे ‘धार्मिक भेदभाव’ बताया। बस्तर बिशप काउंसिल ने कहा, “शांतिपूर्ण प्रचार पर रोक गलत।”
- प्रशासन: कलेक्टर ने कहा, “ग्रामसभा का फैसला वैध। शांति बनाए रखें।” पुलिस ने निगरानी बढ़ाई।
धर्मांतरण विवाद का संदर्भ: छत्तीसगढ़ में बढ़ते मामले
छत्तीसगढ़ में धर्मांतरण के मामले 2024 में 25% बढ़े। बस्तर में 500+ केस दर्ज। ग्राम सभा के फैसले बढ़ रहे हैं।
छत्तीसगढ़ धर्मांतरण आंकड़े (2024)
| जिला | केस | ग्राम सभा फैसला |
|---|---|---|
| बस्तर | 200+ | 5 गांव |
| कांकेर | 150+ | 3 गांव |
| जगदलपुर | 100+ | 2 गांव |
सिड़मुड़ का फैसला आदिवासी संस्कृति की रक्षा का प्रतीक है। लेकिन संवाद जरूरी है। सरकार को संतुलन बनाना होगा।




