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ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट: रणनीतिक महत्व बनाम पर्यावरणीय चिंताएं, क्या है विवाद का केंद्र?

नई दिल्ली, (वेब वार्ता)। ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट को लेकर देश की राजनीति में एक बार फिर बहस तेज हो गई है। कांग्रेस की वरिष्ठ नेता सोनिया गांधी ने हाल ही में ‘द हिंदू’ में प्रकाशित एक लेख में इस परियोजना की तीखी आलोचना की है और इसे आदिवासी अधिकारों, पर्यावरण और संवैधानिक मूल्यों पर हमला बताया है। लेख में सोनिया गांधी ने इसे ‘योजनाबद्ध गलत साहसिक कदम’ करार दिया, जो निकोबार की आदिवासी जनजातियों के अस्तित्व को खतरे में डाल सकता है। दूसरी ओर, केंद्र सरकार इसे भारत की रणनीतिक मजबूती और विकास की दिशा में एक बड़ा कदम बता रही है। बीजेपी ने कांग्रेस के रुख पर सवाल उठाते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा को कमजोर करने की कोशिश है।

तो आखिर क्या है ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट? इसे लेकर विवाद क्यों है? और भारत के लिए यह कितना अहम है? आइए विस्तार से समझते हैं।

क्या है ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट?

ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट एक बहु-आयामी बुनियादी ढांचा योजना है, जिसे भारत सरकार ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के सबसे दक्षिणी द्वीप, ग्रेट निकोबार में लागू करने का निर्णय लिया है। यह परियोजना द्वीप को रणनीतिक, व्यापारिक और पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित करने का उद्देश्य रखती है। नीति आयोग के नेतृत्व में तैयार इस योजना को 2021 में मंजूरी मिली थी और इसे 30 वर्षों में चरणबद्ध तरीके से पूरा करने का लक्ष्य है।

परियोजना के मुख्य घटक

  • इंटरनेशनल कंटेनर ट्रांसशिपमेंट टर्मिनल (ICTT): गलाथिया खाड़ी में 16 मिलियन TEU (ट्वेंटी फुट इक्विवेलेंट यूनिट) क्षमता वाला गहरे समुद्र का बंदरगाह। यह वैश्विक व्यापार के लिए महत्वपूर्ण होगा।

  • ग्रीनफील्ड इंटरनेशनल एयरपोर्ट: 2050 तक 4,000 यात्री प्रति घंटा की क्षमता वाला हवाई अड्डा, जो सैन्य और नागरिक दोनों उपयोग के लिए होगा।

  • 450 मेगावाट का पावर प्लांट: गैस और सौर ऊर्जा आधारित, द्वीप की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए।

  • प्लान्ड टाउनशिप: 3 से 4 लाख लोगों के लिए शहर, जिसमें घर, कार्यालय, बाजार, पर्यटन सुविधाएं और लॉजिस्टिक्स केंद्र शामिल होंगे।

  • अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर: सड़कें, पानी की आपूर्ति, क्रूज टर्मिनल और हाई-एंड पर्यटन सुविधाएं।

यह परियोजना अंडमान निकोबार द्वीप समन्वित विकास निगम (ANIIDCO) के माध्यम से क्रियान्वित हो रही है, जिसकी निगरानी नीति आयोग कर रहा है। पर्यावरण और वन मंत्रालय से 2022 में सशर्त मंजूरी मिल चुकी है।

ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट का क्या होगा लागत?

अनुमानित लागत: ₹72,000 से ₹81,000 करोड़ (विभिन्न स्रोतों के अनुसार)।
यह निवेश सरकार और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP) मोड से आएगा। पहले चरण में टाउनशिप का निर्माण 2025 से शुरू होने की संभावना है, जिसमें 9.26 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पेड़ों की गिनती और कटाई शामिल है।

भारत के लिए क्यों है यह प्रोजेक्ट अहम?

ग्रेट निकोबार द्वीप मलक्का जलडमरूमध्य के निकट स्थित है, जो दुनिया के सबसे व्यस्त समुद्री मार्गों में से एक है। यहां से वैश्विक व्यापार का 30-40% गुजरता है, जिसमें चीन की ऊर्जा आपूर्ति का बड़ा हिस्सा शामिल है। इस क्षेत्र में भारत की मजबूत उपस्थिति उसे नौसेनिक और वायु निगरानी में बढ़त देगी।

रणनीतिक महत्व

  • चीन को चुनौती: चीन ने ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ रणनीति के तहत म्यांमार, श्रीलंका और पाकिस्तान में बंदरगाह विकसित किए हैं। ग्रेट निकोबार का बंदरगाह भारत को क्षेत्रीय समुद्री शक्ति बनाएगा और वैश्विक शिपिंग को चीनी बंदरगाहों का विकल्प देगा।

  • इंडो-पैसिफिक रणनीति: यह परियोजना QUAD (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया) जैसे सहयोगों में भारत की भूमिका मजबूत करेगी। भारत का एकमात्र त्रि-सेवा कमांड – अंडमान और निकोबार कमांड – यहां से निगरानी और सुरक्षा संचालन करेगा।

  • आपदा प्रबंधन: 2004 की सुनामी ने इस क्षेत्र में भारत की सीमित क्षमता को उजागर किया था। नया बंदरगाह और एयरपोर्ट मानवीय सहायता में तेजी लाएंगे।

  • आर्थिक लाभ: दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की सुरक्षा प्रदाता भूमिका मजबूत होगी, रोजगार सृजन होगा और पर्यटन बढ़ेगा।

बीजेपी प्रवक्ता अनिल के. एंटनी ने कहा, “ग्रेट निकोबार इंडोनेशिया से 150 मील दूर है, मलक्का जलडमरूमध्य के प्रवेश द्वार पर। यह भारत की नौसेना क्षमता, शक्ति प्रक्षेपण और इंडो-पैसिफिक में रणनीतिक महत्व का है।”

तो फिर विरोध क्यों?

हाल ही में ‘द हिंदू’ में प्रकाशित लेख ‘द मेकिंग ऑफ एन इकोलॉजिकल डिजास्टर इन द निकोबार’ में सोनिया गांधी ने परियोजना को ‘पर्यावरणीय आपदा का निर्माण’ बताया। उन्होंने कहा कि यह ₹72,000 करोड़ का गलत खर्च है, जो आदिवासी समुदायों के लिए ‘अस्तित्व का खतरा’ पैदा करेगा।

“हमारी सामूहिक चेतना चुप नहीं रह सकती जब शोम्पेन और निकोबारी जनजातियों का अस्तित्व खतरे में है। हमारी भावी पीढ़ियां इस बड़े पैमाने पर विनाश को बर्दाश्त नहीं कर सकतीं।”
– सोनिया गांधी

पर्यावरणीय चिंताएं

  • पेड़ों की कटाई: सरकारी आंकड़ों में 8.5 लाख पेड़ कटने का अनुमान, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह 32 लाख से 58 लाख तक हो सकता है।

  • जैव विविधता का खतरा: निकोबार मेगापोड, लेदरबैक कछुआ, नमक पानी के मगरमच्छ जैसी दुर्लभ प्रजातियां प्रभावित होंगी। क्षेत्र वर्षावन जैव विविधता से भरपूर है, जिसकी पुनर्स्थापना असंभव।

  • मुआवजा वनीकरण पर सवाल: सरकार का कहना है कि कंपेंसेटरी एफोरेस्टेशन होगा, लेकिन सोनिया गांधी का तर्क है कि कृत्रिम वन पुराने वर्षावनों की जैविक जटिलता की भरपाई नहीं कर सकते।

आदिवासी अधिकार और FRA का उल्लंघन?

राहुल गांधी ने जनजातीय मामलों के मंत्री जुअल ओराम को पत्र लिखकर सवाल उठाया कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत स्थानीय जनजातियों से अनुमति ली गई? पत्र में कहा गया, “ट्राइबल काउंसिल ने बताया कि निकोबारी और शोम्पेन जनजातियों से उचित परामर्श नहीं किया गया।”

शोम्पेन और निकोबारी (PVTG) जनजातियां पहले ही 2004 की सुनामी से विस्थापित हो चुकी हैं। अब यह प्रोजेक्ट उनकी संस्कृति, जमीन और जीवनशैली को स्थायी खतरा दे सकता है। ट्राइबल काउंसिल का कहना है कि 2022 का ‘नो ऑब्जेक्शन’ पत्र जल्दबाजी में लिया गया और बाद में रद्द कर दिया गया।

क्या यह आपदा को न्योता है?

ग्रेट निकोबार उच्च जोखिम वाले भूकंप और सुनामी क्षेत्र में है। 2004 की सुनामी में द्वीप 15 फीट तक डूब गया था। जयराम रमेश ने कहा कि इतने बड़े पैमाने पर निर्माण भविष्य की आपदाओं को आमंत्रित कर सकता है।

सरकार की दलील: रणनीति और रोजगार

सरकार का कहना है कि यह प्रोजेक्ट भारत को वैश्विक समुद्री हब बनाएगा और स्थानीय रोजगार, पर्यटन व आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देगा। ANIIDCO और नीति आयोग के अनुसार, आदिवासी अधिकारों और पर्यावरण का सम्मान करते हुए परियोजना लागू होगी। पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि वन भूमि डायवर्शन के बाद भी 82% क्षेत्र संरक्षित रहेगा। बीजेपी ने कांग्रेस पर राष्ट्रीय हितों के खिलाफ बोलने का आरोप लगाया।

विकास बनाम संरक्षण की जंग

ग्रेट निकोबार प्रोजेक्ट एक तरफ भारत के लिए रणनीतिक और सुरक्षा दृष्टिकोण से बेहद अहम है, लेकिन दूसरी ओर इससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और आदिवासी संस्कृति पर गंभीर असर पड़ सकता है। क्या भारत इस प्रोजेक्ट को ‘सस्टेनेबल’ तरीके से आगे बढ़ा सकता है? क्या स्थानीय समुदायों को वास्तव में लाभ मिलेगा या वे विकास की कीमत चुकाएंगे? इन सवालों का जवाब ही इस प्रोजेक्ट के भविष्य को तय करेगा। विशेषज्ञों का कहना है कि संतुलित दृष्टिकोण अपनाकर दोनों हितों की रक्षा की जा सकती है।

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