Friday, November 14, 2025
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बिना पर्ची नहीं मिलते, बिना मर्जी नहीं बैठते — हरदोई के डीएफओ जयंत भिमराव शेडे का ‘राजतंत्र’

जनता के पैसे से वेतन, लेकिन जनता से दूरी, वन विभाग में पर्ची संस्कृति से बढ़ी आमजन की परेशानी।

हरदोई, लक्ष्मीकान्त पाठक (वेब वार्ता)। जिले के डीएफओ कार्यालय में इन दिनों लोकतंत्र नहीं, बल्कि राजतंत्र जैसा माहौल दिखाई दे रहा है। प्रभागीय निदेशक (डीएफओ) जयंत भिमराव शेडे से मिलने के लिए अब जनता को पर्ची लगानी पड़ती है। खुद तय किया गया मुलाकात का समय सुबह 10 से दोपहर 12 बजे तक, लेकिन ‘साहब’ कभी 11 बजे, कभी 12 बजे बैठते हैं — और कई बार तो बैठते ही नहीं। परिणामस्वरूप, परमिट या अन्य कार्यों के लिए आने वाले गरीब किसान और ग्रामीण दिन-भर चक्कर काटते हैं। उन्हें हर बार यही जवाब मिलता है कि “साहब जरूरी कार्य में व्यस्त हैं।” सवाल यह उठता है कि आखिर वह जरूरी कार्य कौन-से हैं जिन्हें डीएफओ अपने आवास पर बैठकर निपटाते रहते हैं, जबकि जनता कार्यालय में घंटों प्रतीक्षा करती है।

पर्ची लगाओ, मर्जी देखो

कार्यालय में जनता से मिलने के लिए अब ‘पर्ची व्यवस्था’ लागू कर दी गई है। आम आदमी पहले पर्ची भरता है, फिर गार्ड साहब के पास लेकर जाता है, और उसके बाद डीएफओ तय करते हैं कि मिलना है या नहीं। गरीब किसान और मजदूर, जिनके पास रोजाना दफ्तर आने का समय या साधन नहीं होता, अब इस प्रक्रिया से बेहद परेशान हैं।

कार्यालय के बाबुओं पर जनता का गुस्सा

डीएफओ के इस रवैए का सीधा असर कार्यालय कर्मचारियों पर पड़ रहा है। जब अधिकारी समय पर दफ्तर नहीं बैठते, तो जनता का गुस्सा बाबुओं पर उतरता है। वे दिन-भर यही सफाई देते रहते हैं— “साहब जरूरी कार्य में हैं।” इस स्थिति में जनता और कर्मचारी, दोनों असहज महसूस कर रहे हैं।

सरकारी आदेशों की खुली अवहेलना

उत्तर प्रदेश सरकार ने सभी अधिकारियों को निर्देश दिए हैं कि वे जनता दर्शन समय पर कार्यालय में उपस्थित रहें और आम जनता की समस्याओं का समाधान करें। लेकिन हरदोई के वन विभाग में यह आदेश कागज़ों तक सीमित है। जिले के सबसे बड़े अधिकारी जिलाधिकारी तक के यहां जनता को मिलने के लिए किसी पर्ची की आवश्यकता नहीं होती। लोग सीधे जाकर अपनी बात रखते हैं और समाधान भी पाते हैं। परंतु डीएफओ कार्यालय में बिना पर्ची प्रवेश वर्जित है।

जनता में बढ़ता आक्रोश

डीएफओ के इस व्यवहार को लेकर जनता में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। किसानों का कहना है कि विभाग के इस रवैए ने आम जनता के कामों को और जटिल बना दिया है। नाम न छापने की शर्त पर कई किसानों ने बताया कि पेड़ काटने या ट्रांसपोर्ट परमिट के लिए उन्हें कई-कई दिन तक चक्कर काटने पड़ते हैं, फिर भी काम नहीं होता। एक ग्रामीण ने बताया कि “हम लोग रोजाना 20-25 किलोमीटर दूर से आते हैं, लेकिन साहब मिलते नहीं। कभी कहते हैं बैठक है, कभी कहते हैं जरूरी कार्य में हैं। वह कौन-सा जरूरी कार्य है जो जनता से ऊपर है?”

सेवा या सत्ता? सवाल अब जनता का है

डीएफओ जयंत भिमराव शेडे का यह रवैया न केवल शासनादेशों की अवहेलना है, बल्कि जनता के विश्वास पर भी आघात है। जब जनता की सेवा के लिए नियुक्त अधिकारी ही अपनी सुविधा और मर्जी को सर्वोपरि मान लें, तो शासन की नीयत और नीतियों पर सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या वन विभाग में अब “साहब की मर्जी ही कानून” बन गई है? क्या जनता के पैसे से वेतन पाने वाले अधिकारी जनता से ही दूरी बनाए रखेंगे? यह सवाल अब हरदोई के जनमानस में गूंज रहा है — जनता के लिए कौन, अगर जनता का अधिकारी ही जनता से दूर हो जाए?

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