बेंगलुरु, (वेब वार्ता)। कर्नाटक राज्य में अनुसूचित जातियों के उपवर्गीकरण को लेकर दशकों से चल रही मांग अब निर्णायक मोड़ पर पहुंच गई है। न्यायमूर्ति एचएन नागमोहन दास आयोग ने अपनी 1766 पृष्ठों की रिपोर्ट मुख्यमंत्री सिद्धारमैया को सौंप दी है, जिसमें छह प्रमुख सिफारिशें की गई हैं। इस रिपोर्ट को सामाजिक न्याय की दिशा में “ऐतिहासिक दस्तावेज़” माना जा रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संभव हुआ ऐतिहासिक कदम
उल्लेखनीय है कि 1 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने दविंदर सिंह केस में स्पष्ट किया था कि राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों का उपवर्गीकरण कर सकती हैं, बशर्ते वह संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुरूप हो। इसके बाद जनवरी 2025 में कर्नाटक सरकार ने आयोग का गठन किया।
तीन प्रमुख मानदंडों पर आधारित सिफारिश
रिपोर्ट में उपवर्गीकरण के लिए तीन मानदंड तय किए गए हैं:
शैक्षणिक पिछड़ापन
सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व की कमी
सामाजिक आधार
आयोग का कहना है कि ये मानदंड राज्य की अनुसूचित जातियों में सामाजिक रूप से अधिक वंचित वर्गों तक आरक्षण का लाभ पहुंचाने में मदद करेंगे।
सर्वेक्षण में 1.07 करोड़ लोगों की भागीदारी
5 मई से 6 जुलाई 2025 के बीच हुए इस समग्र सर्वेक्षण में 27,24,768 परिवारों के 1,07,01,982 व्यक्तियों ने भाग लिया। यह राज्य का अब तक का सबसे बड़ा सामाजिक डेटा संग्रह माना जा रहा है, जिससे सरकार को नीतिगत निर्णय लेने में महत्वपूर्ण आधार मिलेगा।
छह प्रमुख सिफारिशें क्या हो सकती हैं?
हालांकि रिपोर्ट की संपूर्ण जानकारी अभी सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन सूत्रों के अनुसार आयोग ने निम्नलिखित सुझाव दिए हैं:
अनुसूचित जातियों के लिए आंतरिक कोटा निर्धारित किया जाए
प्रत्येक जाति समूह को उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति के अनुसार वर्गीकृत किया जाए
रोजगार और शिक्षा में प्रतिनिधित्व को प्राथमिक मानदंड बनाया जाए
डिजिटल डेटा प्रबंधन प्रणाली तैयार की जाए
प्रभावित जातियों के हितधारकों से चर्चा की जाए
लागू की गई नीति की निरंतर समीक्षा और निगरानी की व्यवस्था की जाए
राजनीतिक प्रतिक्रिया और अगला कदम
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने रिपोर्ट को “सामाजिक न्याय की दिशा में युगांतकारी दस्तावेज़” बताया है और कहा है कि सरकार रिपोर्ट का गहन विश्लेषण कर शीघ्र निर्णय लेगी। सूत्रों के अनुसार, मंत्रिमंडल की उपसमिति भी जल्द गठित की जा सकती है।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस कदम से कर्नाटक सरकार को दलित वर्गों के बीच राजनीतिक मजबूती मिल सकती है, वहीं विपक्ष इसे विभाजनकारी नीति बताकर विरोध कर सकता है।