नई दिल्ली, (वेब वार्ता)। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में एक दुर्लभ और संवैधानिक दृष्टि से महत्वपूर्ण घटनाक्रम के तहत, लोकसभा ने मंगलवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही संविधान के अनुच्छेद 124(4), 217 और 218 के तहत उन्हें पद से हटाने की प्रक्रिया का मार्ग प्रशस्त हो गया है।
लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने सदन में बताया कि यह प्रस्ताव उन्हें 31 जुलाई 2025 को प्राप्त हुआ था। इस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और विपक्ष के नेता समेत कुल 146 लोकसभा सदस्यों और 63 राज्यसभा सदस्यों के हस्ताक्षर हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
मार्च 2025 में दिल्ली स्थित जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने की घटना के दौरान जली हुई नकदी के बंडल बरामद हुए थे। उस समय वे घर पर मौजूद नहीं थे, लेकिन तीन सदस्यीय आंतरिक न्यायिक जांच में पाया गया कि वे इस नकदी पर ‘नियंत्रण’ रखते थे। इस रिपोर्ट के आधार पर भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश की थी।
जांच समिति का गठन
स्पीकर ओम बिरला ने सदन को सूचित किया कि न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 और संबंधित नियमों के तहत आरोपों की जांच के लिए एक वैधानिक समिति गठित की गई है।
इस समिति में शामिल हैं:
जस्टिस अरविंद कुमार (सुप्रीम कोर्ट)
जस्टिस मनिंदर मोहन श्रीवास्तव (मुख्य न्यायाधीश, मद्रास हाईकोर्ट)
वीवी आचार्य (वरिष्ठ अधिवक्ता, कर्नाटक हाईकोर्ट)
समिति शीघ्र ही अपनी रिपोर्ट पेश करेगी और तब तक यह प्रस्ताव लंबित रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट में चुनौती और निर्णय
जस्टिस वर्मा ने इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, इसे प्रक्रिया में खामी और संवैधानिक अतिक्रमण करार दिया था। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका खारिज करते हुए जांच को पारदर्शी और संवैधानिक बताया। अदालत ने यह भी कहा कि पहले उन्होंने जांच में भाग लिया और बाद में उसकी वैधता पर सवाल उठाना उचित नहीं है।
आगे की प्रक्रिया
यदि समिति आरोपों को सही पाती है, तो महाभियोग प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित करना होगा — अर्थात उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मत और कुल सदस्यों का बहुमत। इसके बाद ही यह प्रस्ताव राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाएगा।
दुर्लभ मिसाल
स्वतंत्र भारत में यह तीसरा अवसर है जब किसी कार्यरत न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है।
इससे पहले के दो मामले
न्यायाधीश वी. रामास्वामी (1993)
- कौन थे: वह सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे।
- किसलिए: उन पर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्यकाल के दौरान वित्तीय अनियमितताओं (पैसे का दुरुपयोग) के आरोप लगे थे।
- क्या हुआ: आरोपों की जांच के लिए एक समिति का गठन किया गया था, जिसने उन्हें दोषी पाया। इसके बाद, लोकसभा में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाया गया। हालाँकि, यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका क्योंकि सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी के कई सदस्यों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। इस कारण प्रस्ताव को पारित होने के लिए आवश्यक दो-तिहाई बहुमत नहीं मिल पाया।
न्यायाधीश सौमित्र सेन (2011)
- कौन थे: वह कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे।
- किसलिए: उन पर 1993 में एक रिसीवर के रूप में 32 लाख रुपये के गबन का आरोप था।
क्या हुआ: उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव राज्यसभा में लाया गया था और वहां से पारित भी हो गया था। हालाँकि, जब यह प्रस्ताव लोकसभा में लाया जाने वाला था, तो उससे पहले ही उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इस इस्तीफे के कारण उनके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया रुक गई।