हरदोई, लक्ष्मीकांत पाठक, (वेबवार्ता)। देश में जब भी कहीं हादसा होता है तो सरकारें मुआवज़े का मरहम लेकर आ जाती है। रटी रटायी भाषा में संवेदना के दो शब्द बोलकर मुआवज़े का मरहम लगाकर पीड़ित परिवारों के मुंह बंद करा देती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि बड़े बड़े आयोजनों में जनता के करोड़ों रुपए बर्बाद करने के बाद भी व्यवस्था में झोल कैसे रह जाती है। तमाम अधिकारी, सुरक्षा कर्मी जनता का कार्य छोड़कर बड़े बड़े आयोजनों में लगा दिये जाते हैं। फिर भी जनता को राहत नहीं मिल पाती है। धार्मिक आयोजनों का जोर शोर से प्रचार प्रसार कर आम जनमानस में आस्था की लौ तो जला दी जाती है लेकिन क्या उस लौ को निरंतर प्रज्वलित रखने का भी प्रयास किया जाता है। अपने आप में सवाल है। आयोजनों में अचानक भगदड़ होने,या अन्य कारणो से लोगों को हादसों से जूझना पड़ता है।जिस पर सरकारों द्वारा जांच कमेटी बनाकर जांचें तो करायी जाती है लेकिन जांच मे किसकी जिम्मेदारी तय की जाती है। कितने जिम्मेदारो पर कार्यवाही की जाती है यह सवाल सदैव से अनुत्तरित बने हुये है। आयोजनों में जिम्मेदार अधिकारियों की लापरवाही सदैव से हादसों का कारण बनती रही है। लेकिन जिम्मेदार अधिकारियों की जिम्मेदारी को तय न करके सरकारें मुआवज़े का मरहम लेकर आ जाती है। ऐसे में संवेदना के दो शब्दों के साथ मुआवज़े का मरहम क्या पीड़ित परिवारों के घावों को भर देता है। हादसों में जिसके घर का एकलौता चिराग सदैव के लिए बुझ गया,जिस मां या बहन का सुहाग सदा के लिए उजड़ गया। क्या मुआवज़े का मरहम उसके उन घावों को भर सकता है अपने आप में एक यक्ष प्रश्न बना हुआ है। बड़े आयोजनों में आयोजकों द्वारा यदि आने वाली भीड का सही से अनुमान लगाकर पूरी जिम्मेदारी के साथ काम किया जाये तो निश्चित ही हादसों को रोका जा सकता है। लेकिन भारत जैसे देश में वीआईपी कल्चर का थोथा दम्भ भरते राजनेता जो इसी जनता के वोट से माननीय बनकर उसी जनता के लिए मुसीबत का सबब बनकर उसी जनता को मुआवज़े का मरहम लगाकर एहसान जताते दिखाई देते हैं।इन आचरणों पर सत्ता व विपक्ष के राजनीतिक दल लगभग एक ही जैसी सोच रखते हैं।इस नीति पर सूरदास के पद की एक लाइन कितना प्रासंगिक लगती कि ‘यहां तो कूप में भांग पड़ी है”। सरकारो को राजनैतिक आरोप प्रत्यारोप से ऊपर उठकर हादसों के जिम्मेदार लोगों की जिम्मेदारी तय करके इतनी कठोर कार्यवाही सुनिश्चित की जानी चाहिए कि भविष्य में हादसों की गुंजाइश न के बराबर हो जाये।और जिम्मेदार लोगों के अंदर इतना भय व्याप्त हो जाये कि लापरवाही करने से पूर्व वह सोचने को मजबूर हो जाये।
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