-राधा रमण-
राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद 8 अप्रैल को देशभर में वक्फ संशोधन कानून 2025 लागू हो गया है। केंद्र सरकार ने इसकी अधिसूचना जारी कर दी है। यह अधिसूचना भारत के राजपत्र में प्रकाशित कर दी गई है। वक्फ संशोधन विधेयक को पिछले सप्ताह संसद के दोनों सदनों से मंजूरी मिल गई थी। हालांकि इस कानून को कई मुस्लिम संगठनों और राजनेताओं ने अल्पसंख्यक हितों के खिलाफ बताते हुए कोर्ट में चुनौती दी है। देश के अलग-अलग भागों में इस कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। खासकर कांग्रेस समेत देश के विपक्षी दल इसके विरोध को हवा दे रहे हैं। इस कानून के विरोध में याचिका दाखिल करनेवालों में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष सांसद असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा, राष्ट्रीय जनता दल के सांसद मनोज झा और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के प्रतिनिधि समेत 12 लोग शामिल हैं। उधर, केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में कैविएट दाखिल कर मांग की है कि मामले की सुनवाई की पूर्व सूचना उसे भी दी जाए ताकि समय रहते वह भी अपना पक्ष रख सके। इस बीच, ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने देशभर में ‘वक्फ बचाव अभियान’ शुरू कर दिया है। इसके तहत एक करोड़ लोगों का हस्ताक्षर कराकर प्रधानमंत्री को सौंपा जाएगा। यह अभियान 7 जुलाई तक चलेगा। ऐसे में यह जानना जरूरी हो जाता है कि आखिर इस कानून में क्या है जिससे मुस्लिम संगठनों और विपक्षी दलों का ‘इस्लाम’ खतरे में आ गया है।
दरअसल, विपक्ष और नये वक्फ कानून का विरोध करनेवालों का कहना है कि सारा विवाद वक्फ बोर्ड की सम्पत्तियों पर कब्जे को लेकर है। देशभर में वक्फ बोर्डों के पास 9.4 लाख एकड़ की जमीन है। इससे ज्यादा भूमि का स्वामित्व रेलवे और सशस्त्र बलों के पास है। वक्फ बोर्डों के पास यह सम्पत्तियां मुसलमानों द्वारा दान की गई हैं, जिन पर दरगाह, मस्जिद, कब्रिस्तान, मदरसा, दुकान आदि स्थापित हैं। इसके अलावा बहुतेरी कृषि भूमि भी है। इसकी देखरेख के लिए देश के हर राज्य में वक्फ बोर्ड गठित किया गया है। समय-समय पर इन वक्फ बोर्डों पर आर्थिक घपले के आरोप लगाये जाते रहे हैं लेकिन चूंकि वक्फ मामलों की सुनवाई सरिया कानून के तहत होने, वक्फ के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकने और सार्वजनिक अदालतों में नहीं होने के कारण कोई भी आरोप साबित नहीं हो पाए हैं। उधर वक्फ बोर्डों के पदाधिकारी मालामाल होते रहे हैं।
नये वक्फ कानून से आम मुसलमानों को कोई कठिनाई नहीं आएगी। वैसे भी वक्फ ने अपनी आमदनी का उपयोग किसी गरीब मुसलमान की पढ़ाई-लिखाई अथवा उसका जीवनस्तर सुधारने के लिए किया हो इसका उदाहरण नहीं मिलता। काश, अगर वक्फ बोर्ड मुसलमानों की दशा-दिशा सुधारने की कोई पहल करता होता तो आज हालात कुछ और होते। हां, वक्फ बोर्डों पर काबिज लोग जीवनभर ऐशोआराम का जीवन जरूर जीते रहे।
संसद में वक्फ बिल पर चर्चा का जवाब देते हुए अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री किरेन रिजजू ने बताया कि वक्फ बोर्डों के पास लाखों करोड़ की सम्पत्ति होने के बावजूद इसका इस्तेमाल गरीब मुसलमानों के पक्ष में नहीं होने के कारण अराजकता की स्थिति थी। हम बिल नहीं लाते तो वह संसद भवन पर भी दावा कर सकते थे। गृह मंत्री अमित शाह कहते हैं कि नये बिल से अब वक्फ के आदेश को अदालत में चुनौती दी जा सकेगी। पहले वक्फ का फैसला ही अंतिम होता था। यह गलत धारणा है कि नया वक्फ कानून मुसलमानों के धार्मिक आचरण, उनके द्वारा दान की गई सम्पत्ति में हस्तक्षेप करेगा। बिहार के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान भी कहते हैं कि देशभर में वक्फ का दुरुपयोग करना एक बीमारी बन गई है। इसे रोकने में नया कानून कारगर होगा। आरिफ साहब कहते हैं कि गरीबों, कमजोरों और जरूरतमंदों पर अपनी आमदनी में से खर्च करने की बात कुरआन में भी लिखी गई है। लेकिन वक्फ यह सब कहां करता था। वक्फ के जरिये न तो कोई अस्पताल चलता है न ही बढ़िया स्कूल-कालेज। इसके जिम्मेदारों ने वक्फ को हमेशा अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है। इसलिए वक्फ की जमीन पर धर्मार्थ काम करने की जरूरत है।
उधर, नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी कहते हैं कि यह कानून मुसलमानों की सम्पत्ति हड़पने के लिए बनाया गया है। यह भारत के मूल विचारों पर हमला है। कांग्रेस इसका विरोध करेगी। ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष सांसद असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि भाजपा मस्जिद- मन्दिर में टकराव बढ़ाकर देश को अस्थिरता में धकेलना चाहती है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती हैं कि वह पश्चिम बंगाल में कानून को लागू नहीं होने देंगी। मुंगेरीलाल की तरह हसीन सपने देखते हुए बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव कहते हैं कि अगर बिहार में उनकी सरकार बनती है तो वह इस कानून को लागू नहीं होने देंगे। सपा-बसपा के नेता भी कुछ इसी तरह की बात कहते हैं।
मुझे कहने दीजिए कि विपक्ष के नेता वक्फ कानून का विरोध कर सिर्फ और सिर्फ मुसलमानों के हमदर्द बनने का दिखावा कर रहे हैं। ये वही लोग हैं जिन्होंने संविधान के अनुच्छेद 370 हटाने का विरोध किया था। ये वही लोग हैं जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के लगाए टैरिफ पर चुप रहते हैं। ये वही लोग हैं जो महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की समस्या आदि पर सड़क पर निकल कर विरोध करना भूल गए हैं। ये वही लोग हैं जो समाज में जातीयता का जहर घोलने पर आमादा हैं। ये वही लोग हैं जो जाने-अनजाने भाजपा की बनाई बिसात पर चौसर खेलने को अभिशप्त हैं।
दरअसल, भाजपा तो शुरू से चाहती है कि देश का जनमत हिन्दू-मुस्लिम में विभाजित हो जाए ताकि उसे आसानी से बहुमत मिलता रहे। सवाल नये वक्फ कानून पर नहीं, बल्कि कानून बनाने के समय पर होना चाहिए। 2014 और 2019 में जब भाजपा को संसद में पूर्ण बहुमत था। उस समय भाजपा चाहती तो यह कानून आसानी से बनाया जा सकता था। लेकिन तब भाजपा ने ऐसा नहीं किया। अब जबकि लोकसभा में भाजपा के महज 240 सांसद हैं तब यह कानून बनाकर भाजपा ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के मुखिया चिराग पासवान, राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी, हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा के जीतनराम मांझी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अजित पवार सरीखे अपने सहयोगी दलों के नेताओं की मुस्लिम परस्ती को खुलेआम चुनौती दे दिया है। साथ ही यह संदेश भी कि ‘वृंदावन में रहना है तो राधे-राधे कहना होगा’। बिहार में इसी साल के आखिर में विधानसभा चुनाव होनेवाले हैं। इसका सर्वाधिक नुकसान नीतीश की पार्टी जनता दल (यू), चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रामविलास) और जीतनराम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा को होगा। भाजपा ने अपने चक्रव्यूह में इन्हें घेर लिया है और निकलने का इनके पास कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। वक्फ बिल पर संसद में जनता दल के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीवरंजन सिंह उर्फ़ ललन सिंह की दलील सुनकर जदयू में भगदड़ की स्थिति बन गई और उसके दर्जनभर से अधिक नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है। कई अभी पार्टी छोड़ने की कगार पर बैठे हैं और उचित समय का इंतजार कर रहे हैं।
वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई ठीक ही तो कहते हैं कि ‘जिस तरह से जदयू और तेलुगुदेशम पार्टी ने संसद में वक्फ संशोधन विधेयक का समर्थन किया, वो बताता है कि पिछले दस महीनों में सियासत का चक्का कितनी तेजी से घूमा है। नीतीश और नायडू दोनों ने अब भाजपा की प्रमुख स्थिति को स्वीकार कर लिया है। इसमें भी नीतीश का बार- बार पालाबदल राजनीति में विचारधारा हीनता का स्पष्ट उदाहरण है। चंद्रबाबू नायडू का मामला थोडा पेचीदा है। वे एक ऐसे राज्य की कमान संभाल रहे हैं, जहां भाजपा बड़ी ताकत नहीं है। उनके पास प्रशासनिक कौशल और राजनीतिक अनुभव है, जिसकी मदद से वे भाजपा पर निर्भर हुए बिना भी आंध्र प्रदेश की सत्ता में बने रह सकते हैं।’ विपक्ष का एक तर्क यह भी है कि केंद्र सरकार मुसलमानों की जमीन हड़पने के बाद ईसाइयों और फिर मन्दिरों की जमीन पर कब्जा करेगी। लेकिन यह दूर की कौड़ी है। बहरहाल, सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं और देखना दिलचस्प होगा कि शीर्ष अदालत इस समस्या का कैसे समाधान करती है।
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