Sunday, March 23, 2025
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ज़हर उगलने वाले क्या जानें ‘उर्दू की मिठास’

-तनवीर जाफ़री-

आपने छात्र जीवन में उर्दू कभी भी मेरा विषय नहीं रहा। हाँ हिंदी में साहित्य रत्न होने के नाते मेरा सबसे प्रिय विषय हमेशा हिंदी ही रहा। और आज भी मैं प्रायः हिंदी में ही लिखता पढता हूँ। परन्तु शेर-ो-शायरी का शौक़ बचपन से ही था। इसके तथा कुछ पारिवारिक व सामाजिक परिवेश के चलते उर्दू से ख़ासकर उसके शब्दों के उच्चारण के आकर्षक तौर तरीक़ों से बहुत प्रभावित रहा। और जब बचपन और जवानी में बड़े मुशायरों में शिरकत करने का मौक़ा मिलता और कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ‘सहर’ जैसे अज़ीम शायर को यह कहते सुनता कि उन्हें ‘उर्दू ज़बान से मुहब्बत है, इश्क़ है क्योंकि यह ज़ुबान आब ए हयात(अमृत ) पीकर आई है’ तो यक़ीनन यह एहसास ज़रूर होता कि आख़िर कुछ बात तो है कि भारत में पैदा होने वाली तथा फ़ारसी व हिंदी के मिश्रण से तैयार उर्दू को हमारे देश के क्रांतिकारियों से लेकर बड़े से बड़े कवियों, साहित्यकारों, राज नेताओं, बुद्धिजीवियों ने न केवल अपनाया बल्कि उसे पाला पोसा और संवारा भी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी उर्दू को भारतीय भाषा कहते थे।

मुगल शासक भी उर्दू भाषा को हिंदी या हिंदवी कहते थे। परन्तु चूँकि उर्दू के लिखने में फारसी लिपि का उपयोग होता है इसलिये लोग इसे मुसलमानों की भाषा कहने लगे। शायद यही वजह है कि आज हिंदी व उर्दू भाषा रुपी दो बहनें एक दूसरे में इतनी रम चुकी हैं कि यदि आप इन दोनों को एक दूसरे से अलग भी करना चाहें तो संभव नहीं। उदाहरण के तौर पर केवल चंद ऐसे अल्फ़ाज़ पेश हैं जो आम तौर पर हिंदी भाषा में बोले जाते हैं परन्तु दरअसल इन शब्दों का स्रोत अथवा उद्भव फ़ारसी अथवा उर्दू से ही हुआ है। जैसे हिन्दोस्ताँ, अदालत, वकील, इंसाफ़, मुंसिफ़, पाएजामा, पेशाब, पंजाब, दरवाज़ा, ख़िलाफ़, मुख़ालिफ़त शराब, किताब, इंक़ेलाब ज़िंदाबाद, ‘शाही'(स्नान), डाकख़ाना, दवा, ईलाज, वज़ीर, शाह, बादशाह, हकीम, हाकिम, हुक्म, सब्ज़ी, मकान जैसे अनगिनत शब्द हैं जो प्रत्येक भारतीय रोज़ाना दिन में कई कई बार इस्तेमाल करता है परन्तु शायद उसे इस बात का एहसास भी नहीं होता कि वह उर्दू के शब्द बोल रहा है।

इसके बावजूद उर्दू जैसे मीठी व अदब साहित्य से सम्बन्ध रखने वाली भाषा का हमारे देश में दशकों से विरोध होता आ रहा है। विरोध तो समय समय पर अंग्रेज़ी का भी हुआ परन्तु दक्षिण भारत व पूर्वोत्तर में अंग्रेज़ी की व्यापक स्वीकार्यता व उसे मिलने वाले समर्थन के चलते राष्ट्रीय स्तर पर उसका विरोध नहीं हो सका। परन्तु उर्दू का विरोध करने का ठेका उसी विचारधारा के लोगों के पास है जो देश को एक रंग में रंगना चाहते हैं। बड़ी आसानी से इस भाषा को मुसलमानों की भाषा या विदेशी भाषा बताते हुये उर्दू का विरोध शुरू हो जाता है। जैसा कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में बजट सत्र के दौरान प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मुंह से सुनने को मिला। मुख्यमंत्री ने सदन में विपक्ष पर हमलावर होते हुये यह कहा कि – ये ‘अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ाएंगे और दूसरों के बच्चों को उर्दू पढ़ने को प्रेरित करेंगे। ये उन्हें मौलवी, कठमुल्ला बनने को प्रेरित करेंगे? यह नाइंसाफ़ी है, यह नहीं चलेगा। ‘ योगी आदित्यनाथ के इस बयान से यह सवाल तो ज़रूर खड़ा होता है कि क्या उर्दू को जानने वालों का, उर्दू पढ़ने या पढ़ने वालों का मक़सद केवल मौलवी बनना बनाना होता है? क्या उर्दू पढ़कर लोग “कठमुल्ला” बन जाते हैं?

यदि ऐसा होता तो भारत में उर्दू की पहली ग़ज़ल लिखने वाले कश्मीरी पंडित, पंडित चंद्र भान ‘ब्राह्मण’ न होते। मुंशी नवल किशोर, दया नारायण निगम, जगत मोहन लाल ‘रवां’, नौबत राय ‘नज़र’, मुंशी महाराज बहादुर ‘बर्क़’, नाथ मदन सहाय, पंडित दया शंकर कौर ‘नसीम’, पंडित रतन नाथ ‘सरशार’, राम कृष्ण ‘मुज़तर’, जमुना दास अख़्तर, राम लाल, डॉ. जगन्नाथ ‘आज़ाद ‘, कृष्ण बिहारी नूर, संजय मिश्रा ‘शौक़, राम प्रकाश ‘बेखुद’, खुशबीर सिंह ‘शाद’, मनीष शुक्ल, आनंद मोहन जुत्शी, गुलज़ार देहलवी, कृष्ण चंदर, रतन सिंह, भारत भूषण पंत और मलिक राम जैसे हिन्दू उर्दू प्रेमियों के अनगिनत नाम हैं जिनके बिना भारत में उर्दू अदब का इतिहास लिखा जाना संभव ही नहीं है। सही मायने में तो इन लोगों के योगदान ने ही उर्दू को पूरे विश्व में समृद्ध बनाया। इनके अलावा शहीद व क्रन्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ान, सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गाँधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, रघुपति सहाय फ़िराक़, आनंद नारायण ‘मुल्ला’, ब्रज नारायण ‘चकबस्त’ जैसे अनेक सम्मानित नाम हैं जिन्होंने उर्दू से व उसकी मिठास से प्यार किया। इनमें न तो कोई कठमुल्ला बना न मौलवी न ही इन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण की ख़ातिर इस भाषा से प्यार किया। दरअसल उर्दू को प्यार करने व इसे प्रोत्साहित करने वाले वे लोग थे जिनके मस्तिष्क में नफ़रत वैमनस्य या कुंठा नहीं भरी थी। वह साहित्य के क़द्रदान लोग थे। वह उर्दू को हिंदी की छोटी बहन मानते थे। वह उर्दू को भारतीय भाषा मानते थे मुसलमानों की भाषा नहीं। वह लोग पूर्वाग्रही नहीं थे। समाज में प्यार व सद्भाव बांटते थे इसीलिये उन्होंने अपने संवाद व अपनी रचनाओं का माध्यम उर्दू रखा।

मगर अफ़सोस की बात है कि देश इस समय ऐसे लोगों के हाथों में है जिन्हें अन्य धर्मों व जातियों से नफ़रत है, जिन्हें लोगों के निजी खान पान व पहनावे से नफ़रत है। जिन्हें क्षेत्र व भाषाओँ से विद्वेष है। आपसी प्यार मोहब्बत इन्हें अच्छा नहीं लगता। यही वजह है कि कहीं उर्दू बाज़ार का नाम बदल कर हिंदी बाज़ार कर दिया गया। उर्दू के प्रतीत होने वाले अनेक ज़िलों, शहरों, क़स्बों व रेल स्टेशंस के नाम बदल दिए गये हैं। जैसे फ़ैज़ाबाद, मुग़लसराय, इलाहबाद जैसे अनेक प्रसिद्ध नाम इसी नफ़रती सियासत के कारण इतिहास बन चुके हैं। ऐसे ही संकीर्ण मानसिकता के लोगों की नज़रों में उर्दू पढ़ने वाला सिर्फ़ ‘मौलवी’ बनता है वह भी ‘कठमुल्ला ‘? कहना ग़लत नहीं होगा कि ऐसी ही संकीर्ण मानसिकता के लोग हमारे देश की सांझी तहज़ीब के दुश्मन हैं। इन्हें मुसलमानों से नफ़रत, मस्जिदों से नफ़रत, मदरसे इन्हें नहीं भाते, उर्दू शब्दों वाले नामों से इन्हें नफ़रत। क़ब्रिस्तान और शमशान में भेद करना इन संकीर्ण मानसिकता वादियों का व्यसन। धर्मों, जातियों व भाषाओं का विरोध करने वाले यह लोग इतने शातिर हैं कि यदि कोई इन संकीर्ण अतिवादियों का विरोध करे तो यह उसे विधर्मी, देशद्रोही, राष्ट्र विरोधी कुछ भी कह डालते हैं। क्योंकि दुर्भाग्यवश देश की सत्ता आज विषवमन करने वाले ऐसे लोगों के हाथों में है जो ‘उर्दू की मिठास’ व उसके एहसास व प्रभाव को समझ पाने की क्षमता क़तई नहीं रखते।

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