देहरादून, (वेब वार्ता)। भाजपा ही नहीं, भारतीय जनसंघ का भी एक बुनियादी, वैचारिक एजेंडा लागू हो गया। समान नागरिक संहिता को कानूनन उत्तराखंड राज्य ने लागू किया है। अभी भाजपा शासित 6-7 राज्य और हैं, जहां समान नागरिक संहिता की दिशा में लगातार प्रयास जारी हैं। वहां से भी जल्द ही अच्छी खबरें आ सकती हैं। केंद्र के स्तर पर कब होगा, फिलहाल यह निश्चित नहीं है। उत्तराखंड देश का सर्वप्रथम राज्य बन गया है। भाजपा के मातृ-दल जनसंघ ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने और तीन तलाक को कानूनन बनाने सरीखे मुद्दों को अपना वैचारिक एजेंडा तय किया था और उसी के आधार पर राजनीति की थी। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण भाजपा और विहिप का साझा एजेंडा था। आरएसएस बांग्लादेशी घुसपैठियों को देश के बाहर खदेडऩे का पक्षधर रहा है। देखा जाए तो ये संघ परिवार के ही वैचारिक मुद्दे हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने उन मुद्दों को साकार कराया है, बेशक समान नागरिक संहिता पर वह राज्यवार चलना चाहते हैं। यह बचाव-मुद्रा इसलिए है, ताकि देश भर में सांप्रदायिक बवाल न मचे और दंगों की नौबत न आए। उत्तराखंड ने जो पहल की है, उसका भी त्वरित विरोध ‘जमायत-ए-हिंद’ ने किया है और समान संहिता को मुसलमानों के मजहबी हुकूक में दखलअंदाजी माना है। उन्होंने इस कानूनी व्यवस्था को सर्वोच्च अदालत में चुनौती देने का भी ऐलान किया है। वैसे समान नागरिक संहिता कोई ‘संघी व्यवस्था’ नहीं है। संविधान बनाने वाले हमारे पुरखों ने अनुच्छेद 44 में यह प्रावधान निहित किया था कि केंद्र अथवा राज्य सरकारें समान नागरिक संहिता लागू करने के प्रयास जरूर करें। देश की सर्वोच्च अदालत ने भी इसकी पक्षधरता कुछ अवसरों पर व्यक्त की है।
तो यह बुनियादी निष्कर्ष तय है कि समान संहिता को लागू करना अवैध और असंवैधानिक नहीं है। यह भाजपा सरकार ने ही तय नहीं किया है, बल्कि सर्वोच्च अदालत की न्यायाधीश रह चुकीं जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई के नेतृत्व में 2.35 लाख लोगों से विमर्श किया गया। उस प्रक्रिया के बाद ही 740 पन्नों का मसविदा सामने आया। उसे विधानसभा में पारित किया गया, फिर राज्यपाल ने सहमति दी और 12 मार्च, 2024 को राष्ट्रपति ने अनुमोदित किया। विमर्श की गुंजाइश अब भी है। साफ है कि समान नागरिक संहिता के तहत सभी धर्मों के सभी लोगों को समान अधिकार देने की व्यवस्था की गई है। हमारा सवाल है कि अनुसूचित जनजातियों को भी इससे अलग क्यों रखा गया है? आदिवासी अब पूरी तरह कबीलाई नहीं हैं। वे भी सुशिक्षित हैं, सरकारी नौकरियां कर रहे हैं, आईएएस/आईपीएस अधिकारी भी हैं। नए दौर, नए युग की करवटें वे भी देख रहे हैं। उन आदिवासियों को इस कानून से अलग रखा जा सकता था, जो आज भी अनपढ़ हैं और जंगल की जिंदगी जी रहे हैं। बहरहाल समान नागरिक संहिता में विवाह, तलाक, बहुविवाह, बाल विवाह, बेटा-बेटी बराबर, गोद लेने की कानूनी व्यवस्था, विरासत, वसीयत और लिव-इन सरीखी तमाम व्यवस्थाएं समान रूप से लागू की जा सकती हैं। उत्तराखंड ने अपने कानून में ‘हलाला’ को ‘अपराध’ करार दिया है। धारा 63 और 51, महिला से क्रूरता या उत्पीडऩ धारा 69 में अपराध है। हलाला पर 10 साल तक जेल की सजा का प्रावधान किया गया है। बहरहाल समान नागरिक संहिता देश भर में लागू क्यों न की जाए?