Friday, March 14, 2025
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वैलेंटाइन डे पर विशेष: युद्ध व्यवस्था में प्रणय की प्रासंगिकता

-राकेश कुमार वर्मा-

जीवन की सतह की अनुभूति कराते भर्तृहरि शतक में नीति, श्रृंगार और वैराग्य के अनुभव हैं। बसंत ऋतु के प्रभाव को कामदेव का शरसंधान बताते हुए उन्होंने स्त्रीयुग को रेखांकित किया है। शम्भुस्वयम्भुहरयो हरिणेक्षणानां…मंगलचारण श्लोक में उन्होंने पुष्पायुध को नमन करते हुए बताया है कि किस प्रकार उनके प्रभाव से कामिनियों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश को घर का काम करने के लिए दास बनाकर रखा है। उन्हों ने चञ्चल कटाक्षों से महाबली इन्द्रादि देवताओं की संहारक स्त्रियों को कवियों द्वारा अबला कहने का खंडन किया है।

इदमनुचितमक्रमश्च पुंसां

यदिह जरास्वपि मान्मथा विकाराः

यदपि च न कृतं नितम्बिनीनां

स्तनपतनावधि जीवितं रतं वा

 वृद्ध अवस्था को प्राप्त पुरुषों की कामुक वृत्ति और विकार और कुच पतन के बाद भी स्त्रियों की काम चेष्टा को उन्होंने विधाता की दो अक्षम्य भूल बताया है। वहीं तुलसीकृत श्रीरामचरित मानस में कामदेव के प्रभाव को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपने बस कीन्हे।

 शिकारी, शिकार, प्रतिद्वंद्वी या साथी रूपी जंगल में मानवता की खोज ही भागवत पुराण का दर्शन है। यह वह अनुभूति है जिसमें संवेदनात्मक आनंद, भावनात्मक निकटता और सौंदर्य निवास करते हैं। कृष्णकथा दो महाकाव्य महाभारत और भागवत की दो अलग-अलग दुनियां के मध्यह प्रवाहित है। एक ओर जहां महाभारत का संबंध पुरुषों की दुनियां से है वहीं भागवत स्त्रियों से संबंधित है। एक का संबंध नायक, राजा, स्प र्धा, तुलना, टकराव, तमस, तनाव, युद्ध, रक्तरपात जैसे विनाशकारी प्रकृति से नारकीय जीवन है तो दूसरी ओर देवकी, यशोदा, राधा, गोपियां, दूध, नवनीत, संगीत, नृत्य्, कला सहित प्रणय प्रसंग से जीवन समृद्ध है। इस प्रकार कृष्ण जन्म से उनकी मृत्यु या उनके अवतरण से अंत के दर्शन को सहजता से बुनता भागवत रक्तपात की सतह से गोरस की ओर कृष्ण को स्थानांतरित करता है।

पौराणिक चित्रों में कान्हा को तोते के साथ खेलते हुए दिखाया जाता है। नाट्यशास्त्र के अनुसार तोता हरा रंग मनुष्य की सुंदरता को दर्शाता है, यही कारण है कि केरल में राम और कृष्ण का किरदार निभाते कथकली कलाकार अपने चेहरे को हरे रंग से रंगते हैं। यह आम और पान के पत्ते का रंग गृहस्थ देवताओं को चढ़ाया जाता था, जो वैवाहिक आनंद की समृति का प्रतीक है। वहीं तमिल संत साध्वी-अंडाल की पहचान उनके हाथ में तोते से होती है जो प्रेम, वासना और कामुकता के देव काम का प्रतीक है। इस काम को स्नेह और प्रणयाभिव्क्ति से नियंत्रित किया जाता है। यहाँ प्रिय के पुनरुत्थान के लिए रति रूप में माँ मायावती प्रद्युम्न के पालन-पोषण पश्चात उससे विवाह कर लेती है।

इस प्रसंग को जयदेव, विद्यापति और चंडीदास जैसे कवियों ने भगवान को एक साधारण ग्वाले के रूप में आकार दिया जो सरल भावनाओं के माध्यम से सुलभ है। उन्होंने राधा और कृष्ण के वियोग और एकत्व, ईर्ष्या और समर्पण के बीच मिलन से ब्रह्मांड को जन्म दिया। कृष्ण की अष्टभार्या में रुक्मिणी और सत्यभामा हैं, वहीं सीता के राम के संबंध की तुलना में राधा का स्वभाव भिन्न है। राम आदर्श पति हैं और सीता आदर्श पत्नी हैं, कृष्ण और राधा महान प्रेमियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो संयोग के लिए नियत नहीं है। शास्त्रों में कहा गया है कि सांसारिक जिम्मेदारियाँ कृष्ण को ग्वालों के गाँव को छोड़कर मथुरा, द्वारका और कुरुक्षेत्र जाने के लिए विवश करते हैं। उन्हें सुख, विलास, कर्तव्य और कर्म की भूमि, के लिए बलिदान देना पड़ता है। उन्हें पतियों द्वारा जुआ के दाव से पीडि़त द्रौपदी जैसी महिलाओं की ऐसी दुनिया को बचाना है जो अराजकता में घिर रही है। उनके उद्धार के लिए उन्हें राधा को त्याागकर युद्ध में अर्जुन के सारथि बनते हैं। समय के साथ, राधा एक देवी बन जाती है जिसके बिना, कृष्ण अधूरे थे। यहाँ आध्यात्मिक रूप से, राधा सामाजिक वर्जनाओं से कुण्ठित हमारे आत्मा की अनकही, अधूरी इच्छाओं का प्रतिनिधित्व कर कृष्ण को पुकारती हैं। कृष्ण सामाजिक वर्जनाओं से परे इस सत्य को स्वीकार कर, हमारे परमानंद के लिए लीला नृत्य करते है।

वैश्विक परिदृश्य में अलग-अलग कानून और व्यवस्था के उल्लंघन पर अगर दंडित होने का भय नहीं होता, तो निश्चित ही मानव में कहीं भी मनुष्यता के लक्षण दिखाई नहीं देते। निजी तौर पर व्यक्तिगत संबंधों का आधार प्राय: एक दूसरे की जरूरत पर निर्भर है। यह आधार शारीरिक और मानसिक, दोनों ही प्रकार का हो सकता है। यही कारण है कि भारतीय परिवेश में कुटुंब या परिवार के अभिन्न अंग के रूप में तमाम रिश्ते में प्रेम पनपता है। प्रेम भौतिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक और आत्मिक, हर स्तर पर महसूस होने वाली भावना है, जो हमारी समूची मनोदैहिक संरचना को प्रभावित करती है। प्रेम पाने और देने की क्षमता का खत्म हो जाना आज एक बड़ी त्रासदी है। महत्वाकांक्षा से ग्रस्त प्रेम अब सम्मान पाने की कोशिश में मायूस, लाचार और उग्रता का पर्याय बन गया है। प्रेम पाने, प्रेम व्यक्त करने, बांटने की इच्छा समान रूप से प्रत्येक जीव के मन में उत्पन्न होती है। प्रेम के बारे में एक और खास बात यह है कि इसमें सिर्फ आनंद की अवस्था नहीं बनी रहती। पहले और अधिक सुख पाने की कामना और फिर उसके न मिलने पर दुख, गुस्सा और ईर्ष्या पैदा होती है और आखिर में प्रेम कुंठा, क्रोध, हिंसा और प्रतिशोध में रूपांतरित हो जाता है। ज्यादातर प्रेम संबंध भ्रामक छवियों के बीच के रिश्ते बनकर रह जाते हैं। प्रेम एक किस्म के विरह या अलगाव से शुरू होता है। विभाजन, अलगाव, दूरी, करीब जाने की तड़प का भाव जितना गहरा होगा, उतनी ही तीव्रता से ‘प्रेम’ का अनुभव होगा। जब विचार और कल्पनाएँ परस्पर साझा होती हैं, तो यह स्वस्थ रिश्तों को बढ़ावा देती है। इस प्रकार प्रेम का अभाव जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है, अनुराग की सुरभि के बगैर प्रेम की प्राप्ति निरर्थक है।

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