ऑस्ट्रेलिया ने 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए यूट्यूब समेत सभी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रतिबंध लगाने का साहसिक फैसला लिया है। यह कदम बच्चों को ऑनलाइन दुनिया के नकारात्मक प्रभावों से बचाने के लिए उठाया गया है। भारत जैसे देशों में, जहां डिजिटल लत तेजी से फैल रही है, वहां इस तरह की नीति बेहद जरूरी हो गई है। यह समय है कि भारत भी बच्चों के डिजिटल अधिकारों की रक्षा के लिए स्पष्ट कानून बनाए, अभिभावकों को जागरूक करे और बच्चों को स्क्रीन की लत से मुक्त करके संतुलित विकास की दिशा में कदम बढ़ाए। ऑस्ट्रेलिया के फैसले से दुनिया के देशों को सबक लेना चाहिए कि बच्चों को सोशल मीडिया से दूर रखने का समय अब आ गया है….
-डॉ. प्रियंका सौरभ-
“बचपन अब किताबों से नहीं, स्क्रीन की चमक से आकार ले रहा है।” यह वाक्य अब सिर्फ साहित्यिक प्रतीक नहीं रहा, बल्कि हमारे समाज की वास्तविकता बन चुका है। मोबाइल, टैबलेट और इंटरनेट की पहुँच बच्चों तक इतनी सहज हो चुकी है कि चार साल का बच्चा भी यूट्यूब पर कार्टून देख सकता है और दस साल का बच्चा इंस्टाग्राम पर रील्स बनाना जानता है। ऐसी स्थिति में ऑस्ट्रेलिया सरकार द्वारा लिया गया फैसला न सिर्फ साहसिक है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को सुरक्षित रखने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम भी है। ऑस्ट्रेलिया ने यह तय कर दिया है कि 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म का भी उपयोग नहीं कर सकेंगे। यह नीति 10 दिसंबर से लागू हो रही है, और इसका उल्लंघन करने पर संबंधित प्लेटफार्मों पर भारी जुर्माना लगाया जाएगा।
ऑस्ट्रेलिया की संसद पहले ही फेसबुक, इंस्टाग्राम, स्नैपचैट, टिकटॉक और एक्स जैसे प्लेटफार्मों को 16 साल से कम आयु के बच्चों के लिए प्रतिबंधित कर चुकी है। अब यूट्यूब को भी इसी दायरे में शामिल किया गया है। यह दुनिया का पहला कानून है जो बच्चों की डिजिटल सुरक्षा को लेकर इतनी स्पष्टता और कठोरता के साथ लागू किया जा रहा है। नियमों के मुताबिक अगर कोई प्लेटफार्म 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को सेवाएं देना जारी रखता है, तो उस पर 5 करोड़ ऑस्ट्रेलियाई डॉलर तक का जुर्माना लगाया जाएगा। यह कोई सामान्य चेतावनी नहीं है, बल्कि टेक कंपनियों को जवाबदेह बनाने की एक गंभीर कोशिश है।
ऑस्ट्रेलिया की सरकार का मानना है कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म का बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य, सामाजिक विकास और व्यवहार पर नकारात्मक असर पड़ रहा है। प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने यह स्पष्ट कहा है कि माता-पिता को यह जानने का हक है कि उनके बच्चे क्या देख रहे हैं और किसके प्रभाव में हैं। यूट्यूब जैसे प्लेटफार्म पर जो सामग्री बच्चों के सामने आती है, वह कई बार हिंसा, लैंगिक पूर्वाग्रह, अपशब्दों और अमर्यादित व्यवहार से भरी होती है। इतना ही नहीं, बच्चों को लगातार विज्ञापन, ब्रांडेड कंटेंट और चकाचौंध वाली ज़िंदगी दिखाकर उनकी असल दुनिया से दूरी बढ़ाई जा रही है।
यूट्यूब का कहना है कि वह केवल एक वीडियो होस्टिंग प्लेटफार्म है और उसे सोशल मीडिया की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। यूट्यूब के प्रवक्ता का तर्क है कि 13 से 15 साल के लगभग तीन-चौथाई ऑस्ट्रेलियाई किशोर इसका उपयोग करते हैं और इसे शैक्षणिक, रचनात्मक व मनोरंजक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। पर सवाल उठता है कि क्या यूट्यूब या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्म बच्चों के लिए वाकई सुरक्षित हैं? क्या वे सुनिश्चित करते हैं कि बच्चों को केवल उपयुक्त और सकारात्मक सामग्री ही दिखाई जाए? वास्तविकता यह है कि अधिकतर टेक कंपनियाँ केवल व्यूज, क्लिक और विज्ञापन राजस्व के लिए काम करती हैं, न कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए।
भारत जैसे देशों में यह मुद्दा और अधिक गंभीर हो जाता है। यहां इंटरनेट यूज़र्स की संख्या करोड़ों में है, जिनमें बड़ी संख्या किशोरों और स्कूली बच्चों की है। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 13 से 17 वर्ष के बच्चे हर दिन औसतन तीन घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया पर बिताते हैं। इतनी कम उम्र में जब बच्चों को किताबों, खेल और सामाजिक मेल-जोल में समय बिताना चाहिए, वे अपने कमरे में अकेले बैठकर स्क्रीन से चिपके रहते हैं। इससे न सिर्फ उनकी आँखों और शारीरिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता है, बल्कि भावनात्मक और सामाजिक विकास भी बाधित होता है।
स्कूलों में शिक्षकों को अब इस बात की चिंता होती है कि विद्यार्थी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं, क्योंकि रात भर मोबाइल पर लगे रहते हैं। माता-पिता इस कशमकश में रहते हैं कि बच्चों को मोबाइल दें या न दें, क्योंकि अगर वे न दें तो बच्चा पिछड़ने का डर जताता है, और दें तो स्क्रीन की लत लग जाती है। डिजिटल लत अब नशे की तरह फैल चुकी है। बच्चों में चिड़चिड़ापन, नींद की कमी, एकाग्रता में गिरावट और रिश्तों से दूरी जैसी समस्याएँ अब आम हो चुकी हैं। कुछ बच्चे तो सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग और साइबर बुलिंग का शिकार हो रहे हैं, जिससे उनका आत्मविश्वास और मानसिक संतुलन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
भारत में अभी तक इस मुद्दे पर कोई ठोस नीति नहीं बन पाई है। सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर 13 साल की आयु सीमा तो तय है, लेकिन उसका पालन कोई नहीं करता। बच्चे गलत उम्र डालकर खाते बना लेते हैं और बिना किसी निगरानी के उनका इस्तेमाल करते हैं। माता-पिता की भूमिका भी संदिग्ध है-कुछ अभिभावक खुद ही बच्चों को स्क्रीन थमाकर व्यस्त कर लेते हैं, जबकि उन्हें मार्गदर्शक बनना चाहिए। इसके अलावा, भारत में स्कूल स्तर पर भी डिजिटल नैतिकता की शिक्षा का अभाव है। बच्चों को यह नहीं सिखाया जाता कि तकनीक का विवेकपूर्ण उपयोग कैसे करें, फर्जी समाचारों से कैसे बचें, या साइबर खतरों से कैसे सतर्क रहें।
समस्या सिर्फ टेक्नोलॉजी की नहीं है, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक जागरूकता की भी है। जब तक माता-पिता, शिक्षक और सरकारें मिलकर यह तय नहीं करेंगी कि बच्चों को किस तरह की डिजिटल दुनिया में प्रवेश करना है, तब तक कोई भी तकनीकी समाधान प्रभावी नहीं हो सकता। डिजिटल अनुशासन केवल कानून से नहीं, संस्कार और समझ से आता है।
ऑस्ट्रेलिया का यह कदम इस मायने में प्रेरक है कि उसने बच्चों की डिजिटल सुरक्षा को प्राथमिकता दी और टेक कंपनियों को चुनौती दी। भारत को भी अब इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यह समय है जब सरकार एक स्पष्ट और सख्त नीति बनाए कि 16 वर्ष से कम आयु के बच्चों को सोशल मीडिया और मनोरंजक प्लेटफार्म से दूर रखा जाएगा। साथ ही, कंटेंट फिल्टरिंग, स्क्रीन टाइम लिमिट, और आयु सत्यापन जैसी तकनीकों को अनिवार्य किया जाए।
इसके साथ ही अभिभावकों के लिए जागरूकता अभियान चलाए जाएँ, ताकि वे यह समझ सकें कि बच्चों के जीवन में स्क्रीन की भूमिका क्या होनी चाहिए। स्कूलों में डिजिटल नागरिकता की शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। मीडिया और फिल्म जगत को भी यह जिम्मेदारी लेनी होगी कि वे बच्चों के लिए सकारात्मक, मूल्य-आधारित और प्रेरक सामग्री का निर्माण करें।
याद रखना चाहिए कि आज के बच्चे कल का समाज तय करेंगे। अगर वे अभी से वर्चुअल दुनिया के भ्रम में खो जाएँगे, तो उन्हें वास्तविक दुनिया की चुनौतियों का सामना करने की ताकत नहीं मिल पाएगी। एक ऐसा समाज तैयार होगा जो स्क्रीन पर जीता होगा, लेकिन जीवन की सच्चाईयों से दूर होगा।
बचपन केवल उम्र का एक पड़ाव नहीं होता, वह मानव जीवन की नींव होता है। अगर उस नींव में सोशल मीडिया की दरारें भर जाएँगी, तो ऊपर खड़ी होने वाली इमारत कभी मजबूत नहीं बन सकेगी। ऑस्ट्रेलिया ने यह संदेश दुनिया को दिया है कि बच्चों को संरक्षित करना केवल पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं, राष्ट्र की नीति होनी चाहिए।
भारत को चाहिए कि वह इस चेतावनी को गंभीरता से ले और भविष्य की पीढ़ियों को सिर्फ डिजिटल दक्ष नहीं, बल्कि संतुलित, संवेदनशील और सुरक्षित नागरिक बनाए। अब समय आ गया है कि हम अपने बच्चों को स्क्रीन से थोड़ी दूरी देकर, उनके जीवन में फिर से किताबों, खेलों और संबंधों को जगह दें। वरना, वह दिन दूर नहीं जब बच्चे हमारे साथ नहीं, बल्कि सिर्फ स्क्रीन के साथ बड़े होंगे।
“अगर बचपन स्क्रीन में खो गया, तो समाज खुद अपने भविष्य से रूठ जाएगा।”