-डॉ. प्रियंका सौरभ-
भारत में एक ओर जब हम विज्ञान, तकनीक और अंतरिक्ष अनुसंधान में नित नई ऊंचाइयों को छूने का दावा करते हैं, वहीं दूसरी ओर आज भी देश के कोने-कोने में ऐसे दृश्य मिल जाते हैं जहाँ बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। यह विडंबना तब और पीड़ादायक हो जाती है जब शिक्षा का मार्ग केवल गरीबी या संसाधनों की कमी से नहीं, बल्कि अंधविश्वास और पाखंड से बाधित होता है।
पाखंड केवल किसी झूठे बाबा का चमत्कार दिखाना नहीं होता, यह वह सामाजिक जाल है जिसमें बच्चों की सोच, सवाल, और सपनों को जकड़ लिया जाता है। ऐसे लोग जिनका उद्देश्य समाज में अपना वर्चस्व बनाना होता है, वे शिक्षा को सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। क्योंकि शिक्षा सवाल करना सिखाती है, सोचने का विवेक देती है और व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाती है। यही वह शक्ति है जिससे पाखंडियों की दुकानें बंद हो सकती हैं।
आज भी देश के अनेक गांवों, कस्बों और पिछड़े क्षेत्रों में ऐसे कथित साधु, संत और धर्मगुरु मौजूद हैं जो मंच से प्रवचन देते हुए कहते हैं, “लड़कियों को ज्यादा पढ़ाओगे तो वे घर नहीं संभालेंगी”, “पुत्री की विद्या उसके विवाह में बाधा बनती है”, “अत्यधिक शिक्षित कन्या अशुभ होती है।” ऐसे वक्तव्य केवल मजाक नहीं होते, ये समाज की सोच को दिशा देते हैं और माता-पिता को बच्चों को स्कूल भेजने से रोकते हैं।
सरकारी प्रयासों के बावजूद शिक्षा का प्रसार तब तक नहीं हो सकता जब तक समाज की मानसिकता नहीं बदले। एक ओर सरकार बच्चों को स्कूल लाने के लिए पोषण आहार, छात्रवृत्ति और मुफ्त किताबों जैसी योजनाएं चला रही है, वहीं दूसरी ओर समाज के स्वयंभू ठेकेदार शिक्षा को तिरस्कार की दृष्टि से देख रहे हैं।
शिक्षा का विरोध करने वाला हर स्वर दरअसल उस भय का प्रतीक है जो पाखंडियों को सता रहा है-कि यदि बच्चा शिक्षित हो गया तो वह जात-पात, भेदभाव, मंदिर में भेद, महिलाओं की स्थिति, शोषण और अन्याय जैसे मुद्दों पर सवाल पूछेगा। यही डर उन्हें किताबों से दूर रखता है।
आज भी कई जगहों पर यह कहा जाता है कि “बेटियों को ज्यादा पढ़ा दोगे तो उनका विवाह मुश्किल हो जाएगा।” कहीं-कहीं पर यह भी कहा जाता है कि “शिक्षित लड़की संस्कारहीन हो जाती है।” यह सोच केवल पिछड़ेपन की नहीं, बल्कि उस पाखंडी सोच की देन है जो धर्म और संस्कृति के नाम पर अज्ञान को बढ़ावा देती है।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि वे स्वयंभू धर्मगुरु जो शिक्षा को व्यर्थ बताते हैं, वे स्वयं उच्च शिक्षित होते हैं। उनके बच्चे विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं, लेकिन वे गांव के बच्चों को ‘गुरुकुल संस्कृति’ का पाठ पढ़ाते हैं जहाँ तर्क का स्थान नहीं होता। यह दोहरा मापदंड इस देश की सबसे बड़ी त्रासदी है।
आस्था और अंधविश्वास के बीच की सीमा रेखा तब धुंधली हो जाती है जब कोई बाबा कहता है कि “बच्चों को स्कूल नहीं, सत्संग में भेजो” और समाज उसका आंख मूंदकर पालन करता है। यही वह क्षण होता है जब शिक्षा पर पाखंड भारी पड़ता है।
एक शिक्षित समाज ही एक प्रगतिशील राष्ट्र की नींव होता है। परंतु जब शिक्षा को ही शंका की दृष्टि से देखा जाए, तो देश का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। स्कूलों को पूजा स्थलों से कमतर आंकना, शिक्षकों को समाज में द्वितीय दर्जा देना और ज्ञान की जगह मंत्रों को प्राथमिकता देना-यह सब उसी मानसिकता का परिणाम है।
ध्यान देने की बात यह भी है कि कई बार राजनीतिक शक्ति और धार्मिक पाखंड का गठबंधन हो जाता है। वोट बैंक की राजनीति में तथाकथित साधुओं को मंच मिल जाता है और वे बच्चों की शिक्षा को भ्रम और पाप बताकर उनका मानसिक दोहन करते हैं। कई बार तो ऐसे प्रचारकों को सरकारी मंच, सुरक्षा और सुविधाएं भी मिलती हैं।
बच्चे जब स्कूल जाते हैं, तो वे केवल गणित, विज्ञान या भाषा नहीं सीखते। वे स्वतंत्रता, समानता, तर्क, और अधिकारों की भी शिक्षा प्राप्त करते हैं। यही वह बात है जो पाखंडियों को असहज कर देती है।
वे नहीं चाहते कि कोई बच्चा पूछे कि —
“यदि हम सब ईश्वर की संतान हैं, तो जातियाँ क्यों हैं?”
“स्त्रियों को मंदिरों में प्रवेश क्यों नहीं मिलता?”
“गरीबों को अच्छे स्कूल क्यों नहीं मिलते?”
ये सवाल ही पाखंड की जड़ें हिला सकते हैं, इसलिए ऐसे लोगों का पहला हमला हमेशा शिक्षा पर होता है।
अफसोस की बात यह है कि शिक्षा विभाग तक कई बार इन प्रवृत्तियों के आगे कमजोर पड़ जाता है। स्कूलों में धार्मिक रस्में सिखाना, बाबाओं के नाम पर छुट्टियाँ देना, या भजन प्रतियोगिताएं करवाना अब सामान्य हो चला है। ऐसे में एक बच्चा जिसे सोचने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, उसे अनुकरण का पाठ पढ़ाया जाता है।
लड़कियों की स्थिति तो और भी दयनीय है। उन्हें ‘कन्या दान’ के नाम पर चुप कराना, ‘पवित्रता’ के नाम पर घर में बंद रखना, और ‘संस्कार’ के नाम पर शिक्षा से वंचित रखना-यह सब उस समाज की असल तस्वीर है जो बाहर से चमकता है लेकिन भीतर से सड़ रहा है। हम अक्सर कहते हैं कि एक पढ़ी-लिखी माँ पूरे परिवार को शिक्षित करती है। लेकिन जब समाज उस माँ को ही स्कूल से बाहर कर देता है, तो पीढ़ियाँ अंधकार में ही पनपती हैं।
हमें यह समझना होगा कि शिक्षा कोई वैकल्पिक साधन नहीं, यह मौलिक अधिकार है। बच्चों की आंखों में जो चमक होती है, वह तब और बढ़ती है जब उनके हाथों में किताबें होती हैं, जब उन्हें प्रश्न पूछने की स्वतंत्रता होती है और जब शिक्षक उनका मार्गदर्शक होता है, कोई बाबा नहीं। यदि हमें एक ऐसा समाज चाहिए जो तर्कशील, न्यायप्रिय और समतावादी हो, तो हमें बच्चों को शिक्षा से जोड़ना ही होगा। इसके लिए केवल योजनाओं की नहीं, मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता है।
हमें बाबाओं और पाखंडियों से यह सीधा सवाल पूछना होगा —
“अगर शिक्षा पाप है, तो आप अपने बच्चों को क्यों पढ़ाते हैं?”
“अगर लड़कियों को स्कूल जाना अनुचित है, तो आपके घर की बेटियाँ क्यों कॉलेज जा रही हैं?”
सवाल पूछना ही पहला कदम है पाखंड के खिलाफ संघर्ष का।
शिक्षकों को भी चाहिए कि वे न केवल पाठ्यक्रम पढ़ाएं, बल्कि बच्चों को विवेकशील बनाएं। उन्हें यह बताएं कि श्रद्धा और समझ में क्या अंतर होता है। विद्यालयों को ऐसे केंद्र बनाना होगा जहाँ स्वतंत्र विचारों का आदर हो, न कि केवल अनुकरण की शिक्षा दी जाए।
सरकारों को चाहिए कि वे शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी प्रकार के धार्मिक हस्तक्षेप को रोकें। संविधाननिष्ठ नागरिकों को चाहिए कि वे धर्म के नाम पर बच्चों के अधिकारों का हनन न होने दें। और सबसे बढ़कर, समाज को चाहिए कि वह बच्चों की शिक्षा को ‘धर्म’ नहीं, ‘कर्तव्य’ माने।
बच्चों के भविष्य से बड़ा कोई धर्म नहीं हो सकता।
किसी भी प्रवचन से ज्यादा जरूरी है उनकी पाठशाला।
किसी भी चमत्कार से ज्यादा जरूरी है उनका सवाल पूछने का साहस।
पाखंड की दीवारों को केवल किताबें ही गिरा सकती हैं। और उस किताब के पहले पन्ने पर लिखा होना चाहिए-“मैं सोच सकता हूँ, इसलिए मैं आज़ाद हूँ।” अंततः यह हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों को ऐसे समाज में बड़ा करें जहाँ वे विवेक से जी सकें, स्वतंत्र रूप से सोच सकें और हर प्रकार के पाखंड से ऊपर उठकर अपना भविष्य गढ़ सकें।