Sunday, March 23, 2025
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कांशी राम की विरासत और मायावती की तर्ज़-ए-सियासत

-निर्मल रानी-

1980 के दशक में बसपा प्रमुख कांशी राम पूरे देश में घूम घूम कर भारतीय समाज को 85 : 15 का जनसँख्या अनुपात समझाते थे और यह बताते थे कि 15 प्रतिशत कथित उच्च जाति के लोग शेष 85 प्रतिशत जातियों व समुदायों के लोगों पर राज कर रहे हैं। और तभी यह नारा प्रचलित हुआ था – वोट हमारा, राज तुम्हारा – नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। जैसे जैसे कांशी राम के नेतृत्व में यह बहुजन आंदोलन आगे बढ़ता गया वैसे वैसे मनुवाद तथा सनातन व्यवस्था में उल्लिखित वर्ण व्यवस्था पर इनका आक्रमण और तेज़ होता गया। यहाँ तक कि ‘तिलक, तराज़ू और तलवार जैसा ‘अभद्र नारा भी उन्हीं दिनों में ख़ूब प्रचलित हुआ। यही वह आंदोलन था जिसमें दलित पिछड़े व अल्पसंख्यक वर्ग के लोग जुड़ते चले गये। यानी कांग्रेस का परम्परागत वोट बैंक धीरे धीरे खिसकना शुरू हो गया। इसी बीच कांशीराम ने 1984 में बहुजन समाज पार्टी नामक एक नये राजनैतिक दल की स्थापना कर दी। उसी दौरान कांशी राम की भेंट मायावती से हुई जोकि उस समय वकालत व बी एड करने के बाद दिल्ली इंद्रपुरी स्थित जेजे कॉलोनी में एक अध्यापिका के रूप में कार्यरत थीं और साथ ही सिविल सर्विसेज़ परीक्षाओं की तैयारी भी कर रही थीं। तभी कांशी राम ने मायावती के तेज़ तर्रार व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कहा था कि – “मैं तुम्हें एक दिन इतना बड़ा नेता बना सकता हूं कि एक नहीं बल्कि आईएएस अधिकारियों की पूरी क़तार तुम्हारे आदेशों का पालन करने के लिए लाइन में खड़ी हो जाएगी। ” तभी से वे कांशी राम के सहयोगी के रूप में उनके साथ प्रायः देखी जाने लगीं तथा उनके ‘क्रन्तिकारी ‘ व उत्तेजक भाषण भी लोगों को प्रभावित करने लगे।

कांशीराम का 9 अक्टूबर 2006 को 72 वर्ष की आयु में लंबी बीमारी के बाद दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। कांशीराम के जीवन के अंतिम दौर में उनकी विरासत को लेकर बसपा के भीतर तथा कांशीराम के परिजनों के द्वारा काफ़ी विवाद भी खड़ा किया गया। परन्तु तेज़ तर्रार मायावती तब तक कांशी राम पर व उनकी विरासत रुपी बसपा पर पूरा नियंत्रण कर चुकी थीं। यही वजह थी कि बौद्ध धर्म के अनुसार हुये कांशीराम के अंतिम संस्कार में उनके परिजनों ने नहीं बल्कि स्वयं मायावती ने ही उनकी चिता को अग्नि दी। अब पार्टी में उन्हें ‘बहन जी ‘ के नाम से बुलाया जाने लगा। कांशीराम के नेतृत्व में ही बीएसपी ने 1999 के संसदीय चुनावों में 14 संसदीय सीटें जीतीं थीं। मायावती को चार बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठने का भी सौभाग्य हासिल है। परन्तु यह कहना ग़लत नहीं होगा कि जिस बसपा को कांशीराम ने एक मिशन के रूप में स्थापित किया था और कांशी राम के जिस मिशन से बड़े सामाजिक परिवर्तन की आहट महसूस हो रही थी, पार्टी पर मायावती का वर्चस्व होने के बाद वही मिशन, वही पार्टी अब सत्ता, वैभव, आत्ममुग्धता और परिवारवाद का शिकार होती नज़र आने लगी। यहाँ तक कि केवल सत्ता हासिल करने के लिये बुनियादी विचारों से भी समझौता करने लगीं। जिस ‘मनुवादी ‘ व्यवस्था के विरुद्ध बसपा का जन्म हुआ था, 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में उसी ब्रह्मण समुदाय के समर्थन की ज़रुरत महसूस हुई तो तिलक, तराज़ू और तलवार जैसा नारा भी बदल गया। 2007 में बहुजन समाज पार्टी, सर्वजन समाज की बातें करने लगी। और यह नया नारा लगा – हाथी नहीं, गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है। उस समय उत्तर प्रदेश में 37 प्रतिशत ब्राह्मणों ने पार्टी को वोट दिया था।

परन्तु चार बार देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बनने के बाद अन्य सत्ताधीशों की ही तरह मायावती भी अहंकार के साथ साथ परिवारवाद का भी शिकार होती चली गयीं। कभी अपने को ज़िंदा देवी बतातीं तो कभी अपने भाई व भतीजे के मोह में डूबती नज़र आतीं। कभी अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों पर फोड़तीं तो कभी उनपर पार्टी का टिकट बांटने में लोगों से करोड़ों रूपये वसूलने का आरोप लगा। हद तो यह कि अपने जीवनकाल में ही मायावती ने बाबा साहब आंबेडकर व कांशी राम के साथ ही अपनी भी प्रतिमायें लगवा डालीं। जिसतरह कांशी राम को अपने परिवार से अलग उत्तराधिकारी के रूप में मायावती नज़र आयी थीं उस तरह मायावती को परिवार से बाहर अपनी पार्टी का कोई योग्य नेता नज़र ही नहीं आया। और आख़िरकार मायावती के इन्हीं स्वार्थपूर्ण फ़ैसलों के चलते उनकी पार्टी का जनाधार घटता चला गया। पिछले लोकसभा चुनावों से पूर्व जब इण्डिया गठबंधन वजूद में आया तो मायावती उस विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनीं। उसी समय यह अंदाज़ा लगाया जाने लगा था कि मायावती भाजपा के प्रति नरम रुख़ अपना रही हैं। इसके पीछे के कारणों से भी अनेक राजनैतिक विश्लेषक बखूबी वाक़िफ़ हैं। पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने मायावती पर बीजेपी को फ़ायदा पहुंचाने का आरोप लगाते हुए स्पष्ट रूप से यह कह दिया था कि यदि बीएसपी ‘इंडिया’ गठबंधन में होती तो पिछले वर्ष हुये लोकसभा चुनावों में एनडीए की जीत नहीं होती। इस आरोप से तिलमिला कर मायावती ने कांग्रेस को ही बीजेपी की ‘बी’ टीम बता डाला। जबकि देश देख रहा है कि इस समय देश में सत्ता, भाजपा व संघ के विरुद्ध जितना राहुल गाँधी मुखर हैं उतना कोई नहीं जबकि मायावती के रवैये से तो पता ही नहीं चलता की वे विपक्ष में हैं या सत्ता के साथ?

सच तो यह है कि मायावती के नेतृत्व में बसपा का न केवल समाज में प्रभाव कम होता जा रहा है बल्कि संगठन भी बिखराव के दौर से गुज़र रहा है। पिछले दिनों जिसतरह उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी के राष्ट्रीय समन्वयक समेत सभी मुख्य पदों से हटा दिया और दो दिन बाद ही उन्हें पार्टी से निष्कासित भी कर दिया उससे भी यही सन्देश गया कि मायावती को अपने परिवार के बाहर भी कोई उत्तराधिकारी नज़र नहीं आया और जिस भतीजे को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी बनाया भी उससे भी जल्द ही पीछा छुड़ा लिया? इस तरह के ढुलमुल फ़ैसलों का प्रभाव निश्चित रूप से पार्टी पर ज़रूर पड़ेगा। सच तो यही है कि कांशी राम की विरासत के रूप में मिले व्यापक जनाधार वाले राजनैतिक दल को मायावती की तर्ज़-ए-सियासत के चलते काफ़ी नुक़सान हुआ है।

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