Saturday, July 27, 2024
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सत्ता के भिखारियों की बगुला-भक्ति

RAVINDRA ARJARIYA-डा. रवीन्द्र अरजरिया-

चुनावी संग्राम की दुन्दुभी बज चुकी है। राजनैतिक दलों के महारथियों को उनके राजाओं व्दारा शक्ति संपन्न बनाकर मैदान में उतारा जा रहा है। जागीरों की पर कब्जा करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद के पूर्व प्रशिक्षण में आधुनिक संसाधनों, परिस्थितिजन्य निदानों तथा अतिरिक्त बल का प्रयोग दिखने लगा है। दलगत दंगल में मीर जाफरों को खोज तीव्र हो चली है। कहीं टिकिट न मिलने पर असंतोष फैल रहा है तो कहीं पार्टी की उपेक्षा पर आक्रोश दिखाया जा रहा है। कहीं गठबंधन में सीटों की जंग सामने आ रही है तो कहीं अह्म का मसला खडा हो रहा है। ऐसे में मीर जाफरों की संख्या में खासा इजाफा होने लगा है। लालच की मगृमारीचिका के पीछे घमण्ड में चूर लोगों को दौडाने वाले अपने घातक हथकण्डे आजमा रहे हैं। प्रत्येक सीट पर जीत पक्की करने के चक्कर में कई पार्टियां लगभग अंधी हो चुकीं हैं। पुराने निष्ठावान समर्पित कार्यकर्ताओं की कीमत पर आयातित दल-बदलुओं की ताजपोशी हो रही है। सिध्दान्त, आदर्श और मर्यादा को तो स्वार्थ, लालच और तिलिस्म के चादर में लपेटकर होलिका के साथ अभी से लकडियों पर बैठा दिया गया है। विश्वगुरु के सिंहासन पर आसीत रहने वाले देश में छल, कपट और झूठ को हथियार बनाकर निरीह नागरिकों पर प्रहार किये जा रहे हैं। मनगढन्त कहानियों को सत्य कथा के रूप में परोसा जा रहा है। सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म से लेकर पंजीकृत संस्थानों तक का इच्छित उपयोग चुनाव की घोषणा से पहले ही दलों व्दारा किया जाने लगा था। केन्द्र सरकार के साथ अनेक राज्यों की सरकारों ने अपनी नीतिगत विसंगतियों के कारण नागरिकों हमेशा ही छला है। कल्याणाकारी योजनाओं को लागू करने में भी श्रेय लेने की होड देखने को मिलती रही है। सम्प्रदायगत खाई खोदने वालों ने अब जातिगत वैमनुष्यता का जहर बोना शुरू कर दिया है। तुष्टीकरण के आधार पर वोट बटोरने की परिकल्पना में आकण्ठ डूबे खद्दरधारियों ने मुफ्तखोरों की जमातों में निरंतर इजाफा ही किया है। कोरोना तो चला गया परन्तु कामचोरी का बुखार अब देश के चालबाज लोगों की हड्डियों तक में बैठ गया है। ईमानदार करदाताओं के खून-पसीने की कमाई को विभिन्न सरकारें अपनी दलगत मजबूती के लिए मुफ्तखोरों पर उडाने में जुटीं हैं। कहीं महिलाओं को भावनात्मक रूप से रिझाने हेतु धन दिया जा रहा है तो कहीं ग्रामीणों को ललचाने के लिए पैसों की बरसात की हो रही है। कहीं धार्मिक यात्राओं पर सरकारी खजाने लुटाये जा रहे हैं तो कहीं पारिवारिक दायित्वों का जिम्मा सम्हालने की कवायत चल रही है। केन्द्र से लेकर ग्राम पंचायत तक के खातों में नोटों की गड्डियां जमा हो रहीं हैं। उधार लेकर घी पीने की कहावत को आदर्श वाक्य मानने वाले लोग अब कार्यपालिका के नुमाइन्दों की तनख्वाय में अनावश्यक इजाफा करने में जुट गये हैं। ज्यादा तनख्वाय-ज्यादा महंगाई का सूत्र वाक्य को अनदेखा करने वालों को सीमापर के कंगाल होते देशों से सीख लेना चाहिए। वर्तमान के लाभ के लिए चंदन की लकडी को कोयला बनाकर बेचाने का क्रम निरंतर जारी है। वहीं अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की निरंतर ऊंची होती कुर्सी, सम्मान पाते भारतीय और बढती विकास दर से बौखलाने वाले देशों को अपनी चौधराहट के जाने का खतरा दिखने लगा है। ऐसे में गद्दारों की फौज तैयार करके राष्ट्र के सीने में खंजर भौंकने का एजेन्डा तेज क्रियान्वित किया जा रहा है। देश में आन्तरिक अस्थिरता पैदा करने हेतु कभी किसानों के वेश में असामाजिक तत्वों व्दारा संख्याबल दिखाकर कानून तोडा जाता है तभी यूनियन का सहारा लेकर संविधान की धज्जियां उडाई जातीं है। दलालों के गर्म होते चुनावी बाजार में धन, जन और बल की नीलामी अब चरमसीमा पर पहुंचती जा रही है। आत्मबलविहीन नेतृत्व ने हमेशा ही गुलामी की जंजीरों को श्रंगार-सामग्री ही माना है। बंगाल के रास्ते देश पर कब्जा करने वालों ने मीर जाफर के कन्धे पर रखकर बंदूकें चलाईं थी। यह अलग बात है कि बाद में उसे भी अपनी करनी का फल मिला। वर्तमान समय में अनेक राज्य अपनी-अपनी ढपली पर अपना-अपना राग अलाप रहे हैं। यह सत्य है कि फूट डालो-राज्य करो के सिध्दान्त पर आधारित विलायती शिक्षाग्रहण करने वाले लोग अपनी आने वाली पीढियों का भविष्य सुरक्षित करने हेतु देश को नीलाम करने से भी नहीं चूकेंगे। सत्ता, सुख और सम्मान के भूखे भिखारियों ने अपनी बगुला-भक्ति के उन्मुक्त प्रदर्शन को तीव्र कर दिया है। ललाट पर चंदन, शरीर पर परम्पारगत धोती और गले में रुद्राक्ष की माला डालकर मंदिरों की चौखटों को चूमने वालों से राष्ट्रभक्ति मतदाताओं को सावधान रहना होगा अन्यथा भावनात्मक प्रदर्शन पर आंसू बहाने वालों को बाद में स्वयं का माथा पीटने पर विवश होना पड सकता है। दूसरी ओर बिना हथियार उठाये ही दुश्मनों को कटोरा पकडाने तथा सुल्तान को घुटनों पर लाने के उदाहरणों के साथ नये भारत का उदय हो चला है परन्तु लाल, हरा, नीला, पीला, भगवां, बैगनी रंगों को आपस में लडाने वाले अपने अतीत के साथ स्वयं के हाथों में आज भी कटोरा देख रहे हैं। पुरातन संस्कारो में आत्मविश्वास के साथ उत्साह का प्रादुर्भाव होता है परन्तु सफलता के प्रति आश्वस्त लोगों को अतिउत्साह की विकृतियों से भी बचना होगा। सावधानी हटते ही दुर्घटना घटने की संभावनायें तेजी से पांव पसारने लगतीं है। पीठ पर वार करने हेतु दुश्मन का छुरा भितरघातियों के हाथों में तैयार ही रहता है। जीतने पर ईवीएम को पारदर्शी और हारने पर ईवीएम को धोखा बताने वाले लोग अभी से ईवीएम को कोसने लगे हैं। ब्लैकमेल यानी भयादोहन करने वाले अपनी जाति, वर्ग, क्षेत्र, धन, जन, बल के आधार पर दलों को ललचाने में लगे हैं। सीटों का बटवारा अब बंदरबांट की तर्ज तक पहुंच गया है। खास सीटों पर टिकिट देने के लिए संग्राम मचा है। अनेक दलों ने अभी तक सभी सीटों पर प्रत्याशियों के नामों की घोषणा नहीं की है। मानने-मनाने का क्रम चल रहा है। वहीं दूसरी ओर सनातन में होलिकाष्टक के वर्जितकाल में केवल परमार्थ के कार्यो को करने का निर्देश दिया गया है। सांसारिकता के मनमाने आचरण इस मध्य पूरी तरह सेवर्जित होते हैं। इस अनुशासन का उलंघन करना, ज्योतिषीय विधा के अनुसार किसी अपराध से कम नहीं होता। रंगोत्सव के ठीक पहले तक इस विशेषकाल का प्रभाव सिर चढकर बोलता है। ऐसा ही रमजान के महीने का फरमान भी है जिसमें व्देष करना, वैमनुष्यता रखना और दूसरों को प्रताडित करना पूरी तरह से मना है। जरूरतमंदों की मदद करने, जकात निकालने तथा खुदा की इबादत में लगे रहने का हुक्म है। मगर मजहबी पैगामों पर अतिआधुनिकता के पाश्चात्य संस्कार काबिज होता जा रहा है। गोरों का जादू सिर चढकर बोलने लगा है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि चुनावी समर की इन्द्रधनुषीय आभा अब होली के रंगों के साथ मतदाताओं को प्रत्याशियों के साथ अठखेलियां करने का अवसर दे रही है ताकि वे बनावटीपन का नकाब उतारकर खुले मन से ठहाके लगा सकें। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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