-जगदीश रत्तनानी-
भारत का उदारीकरण निजी क्षेत्र को लाइसेंस-नियंत्रण-राज से मुक्त करने, जॉन मेनार्ड कीन्स के शब्दों में आर्थिक संकट या आर्थिक अनिश्चितता के समय आने वाली ‘एनिमल स्पिरिट्स’ को बढ़ाने और आर्थिक पलायन के वेग से बचने के लिए था ताकि हम तथाकथित हिंदू विकास दर (आजादी के समय देश में ढांचागत विकास और सुविधाओं का अभाव था। देश के अधिकांश लोग आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थे। इस वजह से 1970-80 के दशक तक भारत की आर्थिक गति सुस्त थी और जीडीपी ग्रोथ 3.5 फीसदी हुआ करती थी।
किसी भी समझदार व्यक्ति के सामने यह बात तय और स्पष्ट है कि चुनावी बॉन्ड्स की योजना एक जबरन वसूली रैकेट थी। भले ही इसे जारी करते समय इसका वह (इसे बनाने वालों के चैरिटेबल होने का कलंक लगाने का) इरादा नहीं था जिस इरादे के साथ इसे तैयार किया गया था। इस योजना से जो वैध दिखाई देने वाला भ्रष्टाचार फैलाया गया, उसका लंबे समय तक अध्ययन और विश्लेषण किया जाएगा। यह घोटालों के इतिहास में एक मील के पत्थर के रूप में दर्ज किया जाएगा जिसने अपने पीछे असाधारण और ऑडिट किए गए दस्तावेजों को देखते हुए कल्पना के लिए कुछ भी नहीं छोड़ा है।
इसकी विभीषिका यह है कि लेन-देन की बारीकियों में विशेष रूप से जब यह सामने आता है-(अ) फार्मा कंपनियों की दवाओं की गुणवत्ता की जांच का मुद्दा और उनके दान, (ब) विभिन्न प्रकार की शुरू हुई जांच जो ‘दान’ के बाद बंद हो गई, इनमें से एक प्रकार अरविंद केजरीवाल के खिलाफ प्रक्रिया की ओर अग्रसर है, (स) भुगतान के बाद व्यापारिक घरानों के पक्ष में लंबे समय से लंबित मंजूरी और अन्य सुविधाएं प्रदान करना; और (द) विदेशी धन के लिए दान के रूप में आने वाला एक स्पष्ट रास्ता सिर्फ शीर्ष चिंताएं हैं। ये न केवल चुनावी बॉन्ड्स योजना के राष्ट्र-विरोधी चरित्र की ओर इशारा करती हैं बल्कि भ्रष्टाचार को निमंत्रण देने के रूप में भी सामने आती हैं-एक खुली नीति जो भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली के साथ छेड़छाड़ करने का स्पष्ट रास्ता बताती है।
कीमत का पता हो तो एक कारोबारी नेता या निहित स्वार्थ क्या नहीं कर सकता, खास तौर पर जब कानूनी कवर की गारंटी हो, कानून में गोपनीयता लिखी गई हो और भारत के प्रधानमंत्री की पार्टी लूट की प्राप्तकर्ता हो? यह भ्रष्टाचार की ‘रेट-कार्ड’ पद्धति को वैध बनाता है जो लगान वसूली की मांग को एक कुशल, पूर्वानुमानित और मात्रात्मक उद्यम बनाता है, केवल यह कि सत्ता के उच्चतम सोपानों पर काम करता है। यह वैध है और वह आपका कोई भी काम हो, उसे पूरा करता है। एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश के रूप में यह भारत के पतन और ‘बनाना रिपब्लिक’ बनने की दिशा में निश्चित प्रवेश का प्रतीक है जिसमें शांति की दिखावटी भावना उस आंतरिक व्यवहार को मुश्किल से छुपाती है जहां गंदे काम किए जाते हैं। यह भारत की विकास गाथा की आंतरिक सड़ांध है, बढ़ती जीडीपी की बात तो छोड़िए, यह एक ऐसे देश का खुद का थोपा गया उपनिवेशीकरण है जिसने अपनी प्रतिष्ठा खो दी है।
महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री रह चुके एआर अंतुले को चुनावी बॉन्ड्स योजना के शुरुआती संस्करण के रूप में वर्णित किया जा सकता है। फर्क सिर्फ इतना था कि उनका धन संग्रह गरीबों के लिए था, न कि चुनाव लड़ने के लिए। जब उनके द्वारा नियंत्रित ट्रस्टों को ‘दान’ के बारे में पता चला तो 1982 में दबाव डालकर अंतुले को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया था। यह सार्वभौमिक रूप से एक महत्वपूर्ण और बड़ा घोटाला माना जाता था। यह भाजपा ही थी जिसने अंतुले के खिलाफ मामला दर्ज किया था जिन्होंने शार्टेज के समय बिल्डरों को आंशिक रूप से सीमेंट आवंटन के बदले में ट्रस्ट फंड में 50 करोड़ रुपये एकत्र किए थे। जैसे ही यह घोटाला राष्ट्रीय सुर्खियों में आया तो भ्रष्टाचार के मुद्दों को उठाने में भाजपा सबसे आगे थी। लालकृष्ण आडवाणी ने इस घोटाले को उजागर करने के प्रयासों का नेतृत्व किया। आज वही पार्टी एक ऐसे चरण में पहुंच गई है जहां उसका नेतृत्व संग्रह के यथानुपात औचित्य की बात करता है। जैसा कि अमित शाह द्वारा धन प्राप्त के औचित्य के लिए पेश किए प्रयास से पता चलता है, जिसमें उन्होंने कहा कि इतने सारे सांसदों के कारण हमें इतना मिला और विपक्ष को कम सांसद होने के कारण इतना धन मिला।
फिर भी, चुनावी बॉंन्ड्स से राष्ट्र को हुए गहरे नुकसान में उपरोक्त सभी को शामिल नहीं किया गया है। बड़ा झटका तो यह है कि भारत को स्वीकारोक्ति के इस अहसास के साथ आना होगा कि उदारीकरण और निजीकरण के युग में 1991 की उसकी दिशा विफल हो गई है। भारत का उदारीकरण निजी क्षेत्र को लाइसेंस-नियंत्रण-राज से मुक्त करने, जॉन मेनार्ड कीन्स के शब्दों में आर्थिक संकट या आर्थिक अनिश्चितता के समय आने वाली ‘एनिमल स्पिरिट्स’ को बढ़ाने और आर्थिक पलायन के वेग से बचने के लिए था ताकि हम तथाकथित हिंदू विकास दर (आजादी के समय देश में ढांचागत विकास और सुविधाओं का अभाव था। देश के अधिकांश लोग आजीविका के लिए खेती पर ही निर्भर थे। इस वजह से 1970-80 के दशक तक भारत की आर्थिक गति सुस्त थी और जीडीपी ग्रोथ 3.5 फीसदी हुआ करती थी। अर्थशास्त्री राजकृष्णा ने 1950 से 1970 के दशक में देश की धीमी आर्थिक गति को ही ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ कहा था, उससे ऊपर उठ सकें। सुधारों से पहले व्यवसायियों ने व्यापार-सरकार संपर्क की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिए नई दिल्ली में संपर्क कार्यालय रखे।
बहुत समय पहले 1970 के दशक के ‘वैश्विक तेल संकट’ के मद्देनज़र मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए उठाये गये एक कदम के रूप में साबुन पर लगाए गए मूल्य नियंत्रण को समाप्त करने के लिए भारत में यूनिलीवर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मिलने के लिए कहा गया था। प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव की सरकार में वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 24 जुलाई, 1991 को औद्योगिक लाइसेंसिंग को समाप्त कर दिया जिसके बाद इस लाइसेंस-नियंत्रण-राज की जरूरत ही नहीं रही। मनमोहन सिंह ने घोषणा की थी-‘समग्र रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था अधिक प्रतिस्पर्धी, अधिक कुशल और आधुनिक बनने से लाभान्वित होगी और औद्योगिक प्रगति की दुनिया में अपना सही स्थान लेगी।’
इस बदलाव से क्या मिला है? हमारे पास जीडीपी वृद्धि है लेकिन सरकारी खर्च इस विकास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। निजी क्षेत्र हमेशा की तरह कम बोलता है लेकिन अभी भी सत्ता के गलियारों में बातचीत करने और उन लोगों को खुशी से तुरंत पैसा देने के लिए तैयार है जो उनके लिए उपयोगी हैं। जो लोग सत्ता के सबसे करीब हैं उन लोगों की ही सबसे ज्यादा तरक्की हुई हैं। इससे भी बदतर यह है कि इससे व्यवस्था में जो अक्षमताएं पैदा होती हैं वे एक तरफ निजी क्षेत्र को परिपक्व होने की अनुमति नहीं देंगी और दूसरी तरफ़ आर्थिक संकट या आर्थिक अनिश्चितता के समय आने वाली ‘एनिमल स्पिरिट्स’ से सत्ता को मजबूत होने, शासन प्रणाली बनाने, साहसिक निर्णय लेने और जोखिम उठाने से रोकती है।
फिर भी जब प्रक्रिया को प्रबंधित करने के लिए एक साइड गेट मौजूद हो तो ये सारे जोखिम क्यों उठाए जाएं? ये आरोपित खिलाड़ी हैं जो झुकी हुई रीढ़ के साथ शासन करना जारी रखेंगे और हमारे पास निजी क्षेत्र के नाम पर (कुछ अपवादों को छोड़कर) जो है उसे हर कीमत पर कम से कम जोखिम के साथ पैसा बनाने में मदद करेंगे। समाज की ज्वलंत समस्याओं के समाधान के लिए भारत का यह सपना नहीं हो सकता। इस वजह से यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उदारीकरण नीति के साथ हमने ब्रिटिश राज के दौरान प्राप्त धन और आय असमानता को अधिक बढ़ाया है। वर्ल्ड इनइक्वेलिटी लैब के भारती, चांसल, पिकेटी और सोमांची के वर्किंग पेपर ‘इनकम एंड वेल्थ इनइक्वेलिटी इन इंडिया, 1922-2023: द राइज ऑफ द बिलियनेयर राज’ में यह बात लिखी गई है। यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि भारत का निजी क्षेत्र वास्तव में परिपक्व नहीं हुआ है और केवल सरकार की नौकरानी के रूप में खुद को सहज महसूस करता है।
इसलिए यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में नाम लेने लायक कोई सशक्त और उद्देश्यपूर्ण निजी क्षेत्र नहीं है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई भारतीय अभी भी निजी उद्यमों पर भरोसा नहीं करते। भारत में आज भी एक कीमत चुकाकर शांति खरीदने और पैसा बनाने की काम करने की प्रणाली है। सरकार और वे लोग जिनके पास ऐसे साधन हैं वे जनविरोधी एजेंडे में एक साथ खड़े होते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट : द बिलियन प्रेस)