-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
महाकुम्भ में स्नानार्थियों की संख्या का आंकडा देश की आधी जनसंख्या के करीब पहुंचता जा रहा है। अभी तक 50 करोड से अधिक श्रध्दालुओं ने प्रयागराज के संगम तट पर डुबकी लगाकर सनातन के प्रति अपनी आस्था व्यक्त की है। मेला के प्रशासनिक तंत्र ने व्यवस्था के नाम पर आगन्तुकों को आम, खास और अतिखास के वर्गीकरण में रखा है। इस विभाजनकारी व्यवस्था में तपस्या, साधना और धार्मिक मापदण्ड नहीं बल्कि प्रभाव, दबाव और दबदबे का प्रतिशत आंका जा रहा है। राजतंत्र से जुडी कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के अलावा प्रभावपालिका का भी वर्चस्व स्पष्ट रूप से ठहाके लगा रहा है। सरकारी वाहनों के साथ-साथ पदनाम लिखी निजी गाडियों का उपयोग स्वजनों तथा परिजनों को कुम्भ स्नान स्थल तक पहुंचाने हेतु खुलकर हो रहा है। सरकारी अधिकारी, भाई-भाई का नारा बिना शोर के ही लग रहा है। जहां आम श्रध्दालु मीलों पैदल चलकर संगम तट पर पहुंच रहे हैं वहीं अनाधिकृत लोगों को ढोने में लगे वाहनों पर अवैध ढंग से पदनाम की प्लेट लगाकर वीआईपी घाट तक सायरन बजाती गाडियां आस्था पर भी सांसारिक की चोट करने में जुटी हैं। इन अनियमितताओं की शिकायतों के मायने समाप्त हो चुके हैं। अनेक उत्तरदायी अधिकारी स्वयं अपने स्वजनों की व्यवस्था करने में पद का विधि विरुध्द उपयोग कर रहे हैं। यही हाल ट्रेनों में भी है जहां आरक्षण करवाने के बाद भी यात्रियों को अपनी सीट प्राप्त करना असम्भव हो रहा है। शयनयान के साथ-साथ वातानुकूलित डिब्बों में भी भीड का कब्जा देखने को मिल रहा है। रेल विभाग व्दारा केवल प्रथम श्रेणी के वातानुकूलित डिब्बे को ही सुरक्षा प्रदान की जा रही है। महाकुम्भ क्षेत्र को नो-व्हीकल जोन की घोषणा निर्मूल साबित हो रही है। सरकारी वाहनों में बैठे अनाधिकृत लोगों को सुरक्षाकर्मी स्वयं घाट तक पहुंचा रहे है। कथित वीआईपी बनकर पुण्य लूटने की मंशा लेकर आने वालों की संख्या में निरंतर बढोत्तरी दर्ज हो रही है। ऐसा ही नजारा सरकारी अधिकारियों के लिए नि:शुल्क रूप से उपलब्ध कराये गये अतिआधुनिक सुविधायुक्त कार्टे•ा परिसर में भी देखने को मिल रहा है। साधना से मोक्ष की कामना के सिध्दान्त तंत्र ने बदलकर अब प्रभाव से पुण्य लूटने की होड की व्यवहारिक मान्यता स्थापित कर दी है। यूं तो स्वाधीनता के बाद ही सनातन को विकृत करने हेतु अनेक प्राविधानों को संविधान में रख दिया गया था। मंदिरों, तीर्थों, साधना स्थलियों, जागृत शक्ति क्षेत्रों आदि में दान की राशि के आधार पर विशेष दर्शन, विशेष, पूजा प्रसाद आदि की सुविधाओं को कानून बनाकर लागू कर दिया था। हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों पर स्वेच्छा दान, सुविधा दान, विशेष दान और अब साइबर दान से प्राप्त होने वाली धनराशि का उपयोग स्थान के विकास के अलावा भी सरकारी तंत्र व्दारा किया जा रहा है। अनेक सनातनी शक्ति स्थलों पर बनाये गये न्यासों पर गैर सनातनी लोगों की तैनाती भी की जाती रही है। मर्यादाओं को तार-तार करने वाले अनेक कृत्य समय-समय पर सामने आते रहे हैं, जिन्हें लालफीताशाही के दबंग अधिकारियों व्दारा बेशर्मी से दबाया जाता रहा है। ऐसे ही कारकों का बाहुल्य अब महाकुम्भ में भी देखने को मिल रहा हैं। मौनी अमावस्या के हादसे के बाद भी वीआईपी और वीवीआईपी कल्चर पर किसी प्रकार की रोक नहीं लग रही है। वीआईपी घाट की छोटी-बडी नावों पर अधिकारियों, नेताओं, दबंगों, पहुंचवालों तथा पैसेवालों की पकड बनी हुई है। वहां के निर्धारित नियम तो कब के हवा हो चुके हैं। आम आगन्तुकों हेतु मेला प्राधिकरण ने प्रति व्यक्ति नाव का किराया 150 रुपये निर्धारित किया है जबकि उससे कई गुना ज्यादा की वसूली खुलेआम हो रही है। अरैल घाट पर तो वहां मौजूद अधिकारियों के सामने ही नाविकों व्दारा की जा रही मनमाने दाम वसूले जा रहे हैं। श्रध्दालुओं के समर्पण पर मनमानियों का कुठाराघात रोके बिना सनातन का श्रंगार सम्भव नहीं है। सर्वे भवन्तु सुखिन: का वेद वाक्य अपनी किस्तों में हो रही मौत से व्यथित है। स्व: से लेकर स्वजनों तक सीमित होती ज्यादातर अधिकारियों की मानसिकता नेे व्यवस्था को विकृत कर दिया है। लोगों का मानना है कि इस नागफनी बन चुकी विकृति को उखाडने के लिए कट्टरता, सामूहिकता और आक्रामकता जैसे हथियारों की महती आवश्यकता होती जा रही है। अहिंसा परमोधर्म: का उपदेश केवल सनातन को स्वीकार करने वालों पर ही लागू किया गया है जबकि गैर सनातनियों ने अपने धर्म की आड में दिये गये उपदेशों की विस्तारवादी व्याख्यायें करके विपरीत सिध्दान्त गढ लिये हैं। वहां पर संविधान की न्यायिक व्यवस्थायें मौन हो जातीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब सनातनी चिन्हों को शरीर पर धारण करने वाले अनेक खद्दरधारी ही सनातनी व्यवस्था के वैदिक स्वरूप पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित करने लगते हैं। राजनेताओं का एक बडा गिरोह स्वाधीनता के बाद से ही चंदल लगाकर संदल की चिता पर सनातन को बैठाने हेतु बेचैन है। यह केवल धार्मिक जगत के संदर्भ में ही नहीं बल्कि राष्ट्रीयता के परिपेक्ष में भी देखने को मिलता रहा है। अतीत गवाह है कि अनेक अवसरों पर राष्ट्रदोहियों को कवच देने के लिए राजनीति जगत के अनेक माफिया खुलकर सामने ही नहीं आये बल्कि आन्दोलन के नाम पर अपने खास सिपाहसालारों से रक्तरंजित कृत्य भी करवाये। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि सनातन को मुद्दा बनाकर उसके पक्ष-विपक्ष में चिल्लाने वाले केवल और केवल स्वयं का प्रचार करके निजी लाभ कमाने में जुटे हैं। जब तक वास्तविकता के नजदीक पहुंचकर सत्य के दिग्दर्शन के प्रयास नहीं होंगे तब तक चन्द चालबाजों की चालों से आम आवाम की सुकोमल भावनायें आहत होतीं रहेंगी, शोषण को सफलता मिलती रहेगी और होता रहेगा धर्म के नाम पर अधर्म का तांडव। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।