Wednesday, July 23, 2025
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राज्य विधेयक पर निर्णय की समयसीमा को लेकर राष्ट्रपति के संदर्भ पर न्यायालय ने केंद्र, राज्यों से जवाब मांगा

नई दिल्ली, (वेब वार्ता)। उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को एक अहम संवैधानिक मुद्दे पर सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और सभी राज्यों से जवाब मांगा है। मामला राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए उस संदर्भ से जुड़ा है, जिसमें यह सवाल उठाया गया है कि क्या विधानसभा से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति द्वारा निर्णय लेने के लिए कोई समय-सीमा तय की जा सकती है।

प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए.एस. चंदुरकर की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने अगले मंगलवार तक केंद्र और राज्यों से जवाब मांगा है। पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति के संदर्भ में जो मुद्दा उठाया गया है वह ”पूरे देश पर प्रभाव” डालने वाला है।

पीठ ने आदेश दिया, ”संविधान की व्याख्या के मुद्दे हैं। हमने अटॉर्नी जनरल से सहायता करने का अनुरोध किया है। केंद्र और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी करें। सॉलिसिटर जनरल केंद्र की ओर से पेश होंगे। सभी राज्य सरकारों को ईमेल के माध्यम से नोटिस भेजा जाए। इसे अगले मंगलवार को सूचीबद्ध करें। सभी स्थायी वकीलों को भी नोटिस भेजा जाए।”

मामले पर संक्षिप्त सुनवाई के दौरान केरल और तमिलनाडु का प्रतिनिधित्व करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ताओं के. के. वेणुगोपाल और पी. विल्सन ने क्रमशः इस संदर्भ का विरोध किया और इसकी स्वीकार्यता पर सवाल उठाया।

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि ये आपत्तियां बाद में उठाई जा सकती हैं। उन्होंने कहा कि मामले की सुनवाई अगस्त के मध्य में होगी।

मई में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानना चाहा था कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।

संविधान का अनुच्छेद 143 (1) राष्ट्रपति की उच्चतम न्यायालय से परामर्श करने की शक्ति से संबंधित है।

अनुच्छेद के अनुसार, ”अगर किसी भी समय राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है जो ऐसी प्रकृति और ऐसे सार्वजनिक महत्व का है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है, तो राष्ट्रपति उस प्रश्न को विचार के लिए उच्चतम न्यायालय भेज सकते हैं और न्यायालय ऐसी सुनवाई के बाद जैसा वह उचित समझे, राष्ट्रपति को उस पर अपनी राय से अवगत करा सकता है”।

राष्ट्रपति का यह निर्णय आठ अप्रैल को उच्चतम न्यायालय के उस फैसले के संदर्भ में आया है जिसमें न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की शक्तियों को लेकर उठाए गए सवाल पर निर्णय दिया था।

उच्चतम न्यायालय ने पहली बार यह निर्धारित किया कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ रखे गए विधेयकों पर ऐसा संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लिया जाना चाहिए।

पांच पृष्ठों के संदर्भ में राष्ट्रपति मुर्मू ने उच्चतम न्यायालय से प्रश्न पूछे और राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपालों एवं राष्ट्रपति की शक्तियों के संबंध में उसकी राय जानने का प्रयास किया।

अनुच्छेद 200 राज्य विधानसभा द्वारा विधेयकों के पारित होने और उसके बाद राज्यपाल के पास अनुमति देने, अनुमति नहीं देने या विधेयक को राष्ट्रपति के पास पुनर्विचार के लिए भेजने के उपलब्ध विकल्पों से संबंधित स्थितियों का वर्णन करता है।

अनुच्छेद 201 राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित विधेयकों से संबंधित है।

नियमों के अनुसार, राष्ट्रपति के संदर्भों पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा सुनवाई और विचार किया जाएगा जबकि पुनर्विचार याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के समान संख्या के समूह द्वारा बंद कमरे में सुनवाई की जाएगी।

जैसा कि संदर्भ में रेखांकित किया गया है, अनुच्छेद 200, जिसका ज़िक्र किया गया है, राज्यपाल को यह शक्ति देता है कि वे किसी विधेयक को मंज़ूरी दें, मंज़ूरी रोकें, या राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखें। लेकिन इस अनुच्छेद में यह नहीं बताया गया है कि राज्यपाल को यह फैसला कितने समय में लेना चाहिए।

राष्ट्रपति ने कहा कि इसी तरह अनुच्छेद 201, जो राष्ट्रपति की शक्तियों और किसी विधेयक को मंज़ूरी देने या उसे रोकने की प्रक्रिया से जुड़ा है, उसमें भी यह नहीं बताया गया है कि राष्ट्रपति को यह फैसला कितने समय में लेना चाहिए या इसके लिए कौन-सी प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।

राष्ट्रपति मुर्मू ने 13 मई के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण शक्ति के प्रयोग पर भी सवाल उठाया, ताकि विधेयक को तमिलनाडु के राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किया जा सके और उसे पारित मान लिया जाए।

संदर्भ में कहा गया है, ”राष्ट्रपति और राज्यपाल की स्वत: मंजूरी मानने की अवधारणा संवैधानिक व्यवस्था से अलग है और मूल रूप से राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियों को सीमित करती है।”

राष्ट्रपति मुर्मू ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 142 के प्रावधानों की सीमाओं और दायरे को भी समझने की जरूरत है, खासकर उन मामलों में जहां पहले से ही संविधान या कानून में प्रावधान मौजूद हैं। इस संदर्भ में भी उच्चतम न्यायालय की राय जरूरी है।

फैसले में सभी राज्यपालों के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने की समय-सीमा तय की गई है और कहा गया है कि राज्यपालों को संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत अपने समक्ष प्रस्तुत किसी भी विधेयक के संबंध में अपने विवेकाधिकार से कोई फैसल लेने का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा।

इसमें कहा गया है कि अगर राष्ट्रपति राज्यपाल द्वारा विचार के लिए भेजे गए किसी विधेयक पर अपनी सहमति नहीं देते हैं, तो राज्य सरकारें सीधे उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती हैं।

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