सुकमा, (वेब वार्ता)। छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में बसी दोरला जनजाति आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट से गुजर रही है। एक ओर जहां बहुप्रचारित पोलावरम बांध परियोजना को विकास का प्रतीक बताया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर यह परियोजना दोरला समाज की जमीन, संस्कृति, आस्था और जीवनशैली को निगल रही है।
पारंपरिक जीवनशैली पर संकट
दोरनापाल, चिंतलगुफा और बीजापुर-सुकमा सीमांत इलाकों में बसे दोरला जनजाति के लोग पीढ़ियों से जंगलों और वनों के साथ गहरे संबंध रखते आए हैं। उनका जीवन लघु वनोपज, तेंदूपत्ता, महुआ, और पारंपरिक व्यापार पर आधारित रहा है। लेकिन अब पोलावरम परियोजना के जलाशय ने उनके गांव, जंगल और आस्था स्थलों को डूबा दिया है।
विस्थापन अधूरा, पुनर्वास अपूर्ण
सरकार द्वारा विस्थापन तो किया गया, लेकिन न तो समुचित मुआवजा दिया गया और न ही पुनर्वास की ठोस व्यवस्था की गई। कई गांवों के लोग आज शरणार्थियों की तरह बिखरे हुए हैं, जिनका कोई पंजीकृत रिकॉर्ड तक प्रशासन के पास नहीं है। यह न सिर्फ एक प्रशासनिक विफलता है, बल्कि जनजातीय अधिकारों का सीधा उल्लंघन भी है।
सांस्कृतिक क्षरण का खतरा
दोरला समाज की पहचान उसकी संस्कृति, भाषाई विविधता, लोककथाएं और पारंपरिक रीति-रिवाजों से जुड़ी हुई है। इनकी आस्था का केंद्र जंगल और प्रकृति रही है। लेकिन जब वह भौगोलिक और सामाजिक आधार ही नष्ट हो गया, तो उनकी सांस्कृतिक पहचान भी संकट में पड़ गई है।
राजनीतिक पहल और संघर्ष की शुरुआत
छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव और सुकमा के वरिष्ठ नेता दुर्गेश राय ने इस मुद्दे को राजनीतिक और राष्ट्रीय मंच पर उठाया है। उन्होंने हाल ही में राज्यसभा सांसद फूलोदेवी नेताम से मुलाकात कर स्थिति की गंभीरता बताई। राय ने कहा कि,
“यदि दोरला समाज को तत्काल प्रभावी संरक्षण नहीं मिला, तो यह एक समृद्ध जनजातीय संस्कृति की स्थायी क्षति होगी।”
संसद में उठेगा मामला
राज्यसभा सांसद फूलोदेवी नेताम ने आश्वासन दिया कि वह इस मुद्दे को संसद में उठाएंगी। उन्होंने कहा:
“यह केवल एक विस्थापन नहीं, बल्कि एक जनजाति की पहचान का क्षरण है। केंद्र सरकार से जवाबदेही तय की जाएगी और दोरला समाज को न्याय दिलाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाएगा।”
अब क्या?
अब सवाल यह है कि क्या यह आवाज़ सिर्फ संसद की दीवारों में गूंजकर रह जाएगी, या केंद्र और राज्य सरकारें संविधान प्रदत्त जनजातीय अधिकारों की रक्षा में ठोस कदम उठाएंगी? क्योंकि अगर अब भी कदम नहीं उठाए गए, तो दोरला जनजाति का नाम इतिहास की किताबों में ‘एक थी जनजाति’ के रूप में दर्ज हो सकता है।