Saturday, July 26, 2025
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राष्ट्रपति मुर्मू ने की पारंपरिक कलाओं की सराहना, राष्ट्रपति भवन में प्रदर्शनी देख कर कलाकारों से की मुलाकात

सोहराय, पटचित्र और पटुआ कला के संरक्षण को मिला राष्ट्रीय प्रोत्साहन

नई दिल्ली, (वेब वार्ता/संस्कृति संवाददाता)
भारत की समृद्ध लोक एवं जनजातीय कला परंपराओं को नया जीवन देने के उद्देश्य से राष्ट्रपति भवन में चल रहे “कला उत्सव 2025 – आवासीय कलाकार कार्यक्रम” के तहत राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के 29 लोक कलाकारों से विशेष मुलाकात की। इस अवसर पर राष्ट्रपति ने सोहराय, पटचित्र और पटुआ जैसी लुप्तप्राय कला शैलियों में बनी कलाकृतियों की प्रदर्शनी का अवलोकन किया और इन पारंपरिक कलाकारों के कार्य की प्रशंसा की।


कलाओं का जीवंत संगम: तीन राज्यों की सांस्कृतिक झलक

इस आवासीय कार्यक्रम में भाग लेने वाले कलाकार 14 से 24 जुलाई तक राष्ट्रपति भवन में रहे, जहाँ उन्होंने पारंपरिक तकनीकों से अपनी कलात्मक प्रतिभा का प्रदर्शन किया। यह आयोजन न केवल उनके लिए एक सृजनात्मक मंच था, बल्कि देशभर के लोगों को इन प्राचीन कलाओं से परिचित कराने का एक सशक्त प्रयास भी सिद्ध हुआ।

सोहराय कला (झारखंड):

प्राकृतिक रंगों से बने मिट्टी के दीवार चित्रों के माध्यम से सामाजिक जीवन, पशु-पक्षी और कृषि संस्कृतियों का चित्रण करने वाली यह जनजातीय शैली अब धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर थी। कार्यक्रम में शामिल झारखंड की महिला कलाकारों ने मिट्टी की दीवारों के स्थान पर कैनवास पर सोहराय की छवि उकेरी।

पटचित्र (ओडिशा):

‘पटा’ अर्थात कपड़े या ताड़ पत्र पर बने चित्र, जो ओडिशा की पुरातन परंपरा का हिस्सा हैं। इन चित्रों में भगवान जगन्नाथ, रामायण और महाभारत की कथाएँ अत्यंत सूक्ष्म रेखांकन में चित्रित होती हैं।

पटुआ कला (पश्चिम बंगाल):

बंगाल के पटुआ समुदाय द्वारा गाए जाने वाले गीतों के साथ चलने वाली यह चित्रकला परंपरा ‘कथाचित्र’ के रूप में जानी जाती है। इन चित्रपटों में सामाजिक, धार्मिक, पर्यावरणीय और समकालीन विषयों को जीवंतता से प्रस्तुत किया जाता है।

राष्ट्रपति की कलाकारों से संवाद और प्रेरणा

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राष्ट्रपति मुर्मू, जो स्वयं संथाल जनजातीय पृष्ठभूमि से आती हैं, ने इन पारंपरिक कलाओं से व्यक्तिगत लगाव भी व्यक्त किया। उन्होंने कलाकारों से संवाद करते हुए कहा:

“इन कलाओं में हमारी धरती की सोंधी खुशबू है। यह न केवल रंग और रेखाओं की अभिव्यक्ति है, बल्कि हमारी सांस्कृतिक आत्मा की पहचान भी है।”

राष्ट्रपति ने यह भी कहा कि इस तरह के आयोजनों से लोककलाओं को सिर्फ संरक्षण ही नहीं, बल्कि सम्मान भी प्राप्त होता है। उन्होंने कलाकारों से अपने ज्ञान को अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करने की अपील की और सरकार की ओर से निरंतर सहयोग का आश्वासन दिया।

कलाओं के संरक्षण की दिशा में सशक्त पहल

‘कला उत्सव’ राष्ट्रपति भवन का एक अनूठा सांस्कृतिक उपक्रम है, जो ‘Ek Bharat, Shreshtha Bharat’ के मूल भाव को सशक्त करता है। इस आवासीय कार्यक्रम का उद्देश्य देश की विविध पारंपरिक कलाओं को समकालीन परिप्रेक्ष्य में पुनर्जीवित करना है। इसमें कलाकारों को न केवल स्थान और सुविधाएं दी जाती हैं, बल्कि उनके लिए राष्ट्रीय मंच भी सुलभ कराया जाता है।

राष्ट्रपति सचिवालय के अनुसार, यह आयोजन लोक, जनजातीय और पारंपरिक कलाओं को एकजुट कर ‘भारत की रचनात्मक आत्मा’ को संरक्षित करने का प्रयास है। इसमें ‘सीखने-सिखाने’ की पद्धति के माध्यम से पारंपरिक ज्ञान का अंतरण भी प्रमुख लक्ष्य है।

प्रदर्शनी का प्रभाव: शिल्प के रंग, समाज के संग

प्रदर्शनी में बनाए गए चित्रों में ग्रामीण जीवन, प्रकृति से जुड़ाव, नारी शक्ति, धार्मिक आख्यान, और जलवायु परिवर्तन जैसे विषयों को समाहित किया गया था। कलाकृतियों में स्थानीय संस्कृति की झलक तो थी ही, साथ ही उनमें आज की ज्वलंत समस्याओं के प्रति सजगता भी दिखाई दी।

अनेक कलाओं में “स्त्री सशक्तिकरण” का चित्रण प्रमुखता से देखा गया। सोहराय कला में जहाँ महिलाएं प्रमुख रचनाकार होती हैं, वहीं पटुआ चित्रों में भी कई महिला कलाकारों ने समसामयिक विषयों को चित्रित किया।

विशेष टिप्पणी: पारंपरिक कला की ओर लौटता भारत

भारत की पारंपरिक कलाएं कभी जीवन के हर आयाम का हिस्सा थीं – त्योहारों से लेकर जीवन चक्र की प्रत्येक विधि तक। आधुनिकता और बाजारीकरण के दौर में जब ये कलाएं हाशिए पर चली गईं, तब ऐसे आयोजनों ने इन्हें पुनः जीवंत करने का प्रयास किया है।

राष्ट्रपति भवन जैसे प्रतीकात्मक और राष्ट्रीय महत्व के स्थल पर इन कलाओं को स्थान देना, केवल सांस्कृतिक संरक्षण का कार्य नहीं, बल्कि एक मजबूत राष्ट्रीय संदेश है – “हमारी जड़ें ही हमारी शक्ति हैं।”

निष्कर्ष: लोक कलाओं के लिए आशा की किरण

इस आवासीय कार्यक्रम और राष्ट्रपति द्वारा की गई सराहना से कलाकारों में नया आत्मविश्वास जगा है। यह पहल न केवल उनकी कला को सम्मान देती है, बल्कि देशभर में लोगों को अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़ने की प्रेरणा भी देती है।

भारत की लोककलाएं जीवित हैं, जब तक उन्हें देखने वाली आँखें और संजोने वाले हाथ मौजूद हैं — और राष्ट्रपति भवन में यह दृश्य स्वयं प्रमाणित हुआ।

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