मालेगांव, 31 जुलाई (वेब वार्ता)। मालेगांव ब्लास्ट केस : महाराष्ट्र के मालेगांव में वर्ष 2006 में हुए धमाकों को लेकर न्याय की 17 साल लंबी लड़ाई आखिरकार एक विशेष अदालत के फैसले के साथ खत्म हो गई, लेकिन यह अंत पीड़ित परिवारों के लिए न्याय नहीं, निराशा लेकर आया। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) की विशेष अदालत ने सबूतों के अभाव में सभी सातों आरोपियों को बरी कर दिया है। इस फैसले ने पीड़ितों, उनके परिजनों और स्थानीय समुदाय को आक्रोशित और हतप्रभ कर दिया है।
17 साल बाद अदालत का फैसला: सबूतों की कमी, सभी आरोपी बरी
विशेष एनआईए अदालत ने गुरुवार को सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को रिहा करने का आदेश दिया। अदालत ने कहा कि प्रस्तुत किए गए प्रमाण दोष सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। कोर्ट के इस निर्णय ने एक बार फिर न्यायिक प्रक्रिया में प्रशासनिक विफलताओं और जांच की कमियों को उजागर किया है।
पीड़ितों की नाराजगी: “यह न्याय नहीं, अन्याय है”
✍️ मौलाना कय्यूम कासमी (स्थानीय धार्मिक नेता) ने कहा:
“हमें जो उम्मीद थी, उस तरह से फैसला नहीं आया। हेमंत करकरे ने जो उम्मीद की किरण दिखाई थी, वो हमारे पक्ष में नहीं आई। मालेगांव के गरीब और मजलूम लोगों को उनका हक नहीं मिला। अब हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे।”
✍️ लियाकत शेख (पीड़ित के पिता) का गुस्सा:
“हमारे साथ नाइंसाफी हुई है। दोषियों को सजा मिलनी चाहिए थी। सबूतों के बावजूद उन्हें छोड़ दिया गया। अब सुप्रीम कोर्ट ही हमारा सहारा है।”
✍️ एक अन्य पीड़ित परिजन का बयान:
“17 साल बाद मिला यह फैसला चौंकाने वाला और पीड़ादायक है। हम इसे कभी स्वीकार नहीं कर सकते। यह न्याय नहीं, अन्याय है।”
मालेगांव ब्लास्ट केस में हेमंत करकरे की जांच और उसके सवाल
शहीद आईपीएस अधिकारी हेमंत करकरे द्वारा की गई जांच को मालेगांव के लोगों ने उम्मीद की किरण माना था। उन्होंने केस में पुख्ता सबूत जुटाए थे और हिंदू अतिवादी संगठनों के कुछ सदस्यों की गिरफ्तारी करवाई थी। लेकिन कोर्ट के अंतिम फैसले ने उस पूरी जांच प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।
राजनीतिक और सामाजिक दबाव की आशंका
स्थानीय लोगों का कहना है कि अदालत और एजेंसियों पर राजनीतिक दबाव था। उनके मुताबिक, पंचनामा से लेकर गवाहों की सुरक्षा तक हर स्तर पर लापरवाही हुई। कई गवाह अपने बयान से मुकर गए, कई गवाही दे ही नहीं पाए।
अब सुप्रीम कोर्ट की ओर रुख
पीड़ित परिवारों ने स्पष्ट कर दिया है कि वे अब सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। उनका कहना है कि वे हर हाल में इंसाफ की लड़ाई को जारी रखेंगे। वे उच्चतम न्यायालय में फैसले को चुनौती देने की प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं।
निष्कर्ष:
मालेगांव बम धमाके में 17 साल की लंबी न्यायिक प्रक्रिया के बावजूद जब अदालत ने सबूतों के अभाव में सभी आरोपियों को रिहा कर दिया, तो यह फैसला न्यायिक व्यवस्था पर गहरे सवाल छोड़ गया। पीड़ितों का आक्रोश, उनका दर्द और अब सुप्रीम कोर्ट का रुख – यह सब बताता है कि भारत में अब भी न्याय पाने की राह कितनी लंबी और कठिन हो सकती है।