नई दिल्ली, (वेब वार्ता)। केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह द्वारा राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 के अनावरण के साथ भारत की अर्थव्यवस्था को जनभागीदारी आधारित दिशा देने की एक नई शुरुआत हुई है। श्री शाह ने इसे “ऐतिहासिक दिन” बताते हुए कहा कि सहकारिता न केवल आर्थिक सशक्तिकरण का माध्यम है, बल्कि यह सामाजिक समावेश और राष्ट्र निर्माण की एक मजबूत कड़ी भी है।
पिछले कुछ दशकों में जब भारत की आर्थिक चर्चा मुख्यतः कॉर्पोरेट पूंजी, विदेशी निवेश और निजीकरण के इर्द-गिर्द घूम रही थी, तब सहकारिता को कई अर्थशास्त्रियों ने एक “डाइंग सेक्टर” यानी समाप्तप्राय क्षेत्र मान लिया था। परंतु आज वही सहकारिता एक विकल्प नहीं, बल्कि भविष्य के रूप में उभर रही है।
राष्ट्रीय सहकारिता नीति 2025 की विशेषताएं
केंद्र बिंदु में गाँव और व्यक्ति:
यह नीति व्यक्ति, गाँव, महिलाएं, दलित, आदिवासी और किसान को केंद्र में रखती है, जो इसे न केवल आर्थिक बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी समावेशी बनाती है।2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य:
इस नीति का विजन 2047 तक सहकारिता के माध्यम से आत्मनिर्भर और समावेशी भारत बनाना है, जब देश आज़ादी के 100 वर्ष पूरे करेगा।हर गाँव में कम से कम एक सहकारी संस्था:
यह लक्ष्य न केवल ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगा, बल्कि स्थानीय स्तर पर रोजगार और संसाधन सृजन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।कॉर्पोरेट समान अधिकार:
पिछले चार वर्षों में सहकारी संस्थाओं को कॉर्पोरेट सेक्टर के समान अधिकार मिलना इस क्षेत्र के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव है।
सहकारिता: पूंजी और पूरकता का मॉडल
सहकारिता का अर्थ है—”सबका साथ, सबका प्रयास”। यह वह आर्थिक मॉडल है जो:
छोटे-छोटे पूंजीधारकों को एक मंच पर लाकर
सामूहिक रूप से बड़ा उद्यम खड़ा करता है
और लाभ को समान रूप से वितरित करता है।
जहां निजी कंपनियां लाभ को सीमित समूह तक समेटती हैं, वहीं सहकारी मॉडल “लाभ को लोकतांत्रिक” बनाता है।
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जुड़ाव
पूर्व केंद्रीय मंत्री सुरेश प्रभु ने ठीक ही कहा कि सहकारिता भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है। गांवों में परस्पर सहयोग, साझे संसाधनों का उपयोग, सामूहिक निर्णय—ये सभी सहकारिता की बुनियादी अवधारणाएं हमारे सामाजिक तानेबाने में सदियों से मौजूद रही हैं। सहकारिता केवल आर्थिक संगठन नहीं, एक सांस्कृतिक मूल्यों की पुनर्पुष्टि है।
चुनौतियाँ भी हैं सामने
हालांकि नीति सराहनीय है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में कई चुनौतियाँ सामने आएंगी:
सहकारी संस्थाओं में पारदर्शिता और जवाबदेही
राजनीति से मुक्ति और लोकतांत्रिक चुनाव
प्रोफेशनल और तकनीकी प्रबंधन
पूंजी की आसान उपलब्धता और तकनीकी पहुंच
इन सभी चुनौतियों से निपटे बिना सहकारिता को व्यापक और स्थायी आधार नहीं मिल सकता।
सहकारिता—भारत की विकास यात्रा की रीढ़
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सहकारिता मंत्रालय की स्थापना और अब इस व्यापक नीति की घोषणा यह दर्शाती है कि भारत “नीचे से ऊपर” के विकास मॉडल को स्वीकार कर रहा है।
यह नीति केवल गाँव और गरीब के लिए योजना नहीं, बल्कि एक नई अर्थनीति की घोषणा है, जो केंद्रीकृत पूंजीवाद की सीमाओं को पहचानते हुए, जन-आधारित आर्थिक संरचना को मुख्यधारा में लाने का प्रयास कर रही है।
अगर इसे ईमानदारी, पेशेवर प्रबंधन और पारदर्शिता के साथ लागू किया जाए, तो यह न केवल अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगी, बल्कि भारत को विकास और समावेश का वैश्विक मॉडल भी बना सकती है।