नई दिल्ली, (वेब वार्ता)। जलवायु परिवर्तन को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐतिहासिक पहल में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने स्पष्ट कर दिया है कि यह संकट अब केवल पर्यावरणीय नहीं, बल्कि मानव अस्तित्व के लिए सीधा खतरा है। अदालत ने यह भी कहा कि देशों को इस संकट से निपटने के लिए कानूनी रूप से बाध्य किया जाना चाहिए।
आईसीजे ने अपने पहले जलवायु संबंधी परामर्श विचार में सभी 15 न्यायाधीशों की सर्वसम्मति से यह ऐतिहासिक राय दी, जिससे अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत राष्ट्रों की जिम्मेदारियां स्पष्ट हो गई हैं। इससे जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक स्तर पर कानूनी मुकदमों का रास्ता भी खुल सकता है।
प्रमुख बिंदु:
🔹 ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर रोक जरूरी:
आईसीजे ने कहा कि देशों को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने, जीवाश्म ईंधन के विस्तार को रोकने और प्रभावित गरीब देशों को मुआवजा देने जैसे सभी आवश्यक कदम उठाने होंगे।
🔹 उत्सर्जन में विफलता अंतरराष्ट्रीय अपराध:
अदालत ने यह भी माना कि यदि कोई राष्ट्र उत्सर्जन को नियंत्रित करने में विफल रहता है, तो यह “अंतरराष्ट्रीय रूप से गलत कृत्य” माना जाएगा, जिसके लिए उसे जवाबदेह ठहराया जा सकता है।
🔹 न्यायाधीश की चिंता:
न्यायाधीश इवासावा युजी ने कहा, “जलवायु परिवर्तन ग्रह स्तर की चिंता का विषय है, जो सभी जीवन रूपों को खतरे में डाल रहा है।” उन्होंने उम्मीद जताई कि यह फैसला वैश्विक राजनीतिक और सामाजिक कार्रवाई को दिशा देगा।
भारत की प्रतिक्रिया:
भारत ने ICJ की सुनवाई के दौरान यह दलील दी कि विकसित देशों को अधिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए, क्योंकि उनके द्वारा अतीत में अधिक ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित की गई हैं।
भारत की ओर से विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव लूथर एम. रंगरेजी ने कहा,
“अगर उत्सर्जन में योगदान असमान है, तो जिम्मेदारी वहन करने में भी असमानता होनी चाहिए।”
भारत ने अदालत से आग्रह किया कि वह मौजूदा जलवायु संधियों से आगे जाकर कोई नया कानूनी दायित्व न बनाए।
आईसीजे का यह फैसला न केवल एक वैश्विक चेतावनी है, बल्कि यह देशों को जलवायु संकट के प्रति नैतिक नहीं, अब कानूनी रूप से भी उत्तरदायी बनाता है। अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि क्या वैश्विक नेतृत्व इस कानूनी सलाह को वास्तविक कार्रवाई में तब्दील करता है या इसे केवल “परामर्श” मानकर टालता है।