Tuesday, April 1, 2025
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न्यायाधीशों की नियुक्ति में केंद्र को मिला मौका

-योगेंद्र योगी-

दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से कथित तौर पर मिले लाखों रुपए के बाद हाईकोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादलों में केंद्र सरकार को हस्तक्षेप करने का मौका मिल गया है। केंद्र सरकार ने संसद में कॉलेजियम व्यवस्था के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग का कानून पारित किया था। इस कानून के एक विवादास्पद प्रावधानों में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग में भारत के प्रधान न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम जजों और केन्द्रीय कानून मंत्री के अलावा दो जानी-मानी हस्तियों को शामिल करने की व्यवस्था थी। वर्ष 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून (एनजेएसी) को असंवैधानिक ठहराते हुए रद्द कर दिया था। जस्टिस वर्मा नोट प्रकरण के बाद न्यायिक नियुक्ति आयोग फिर से लागू करने की संभावना के बाद सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति में केंद्र सरकार के हस्तक्षेप की उम्मीद फिर से पैदा हो गई है। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राज्यसभा में राजनीतिक दलों से कहा कि उन्हें जजों की तरफ से जजों की नियुक्ति की व्यवस्था को समाप्त करने के लिए एक तंत्र के बारे में सोचना चाहिए। धनखड़ ने कानून को रद्द करने के शीर्ष अदालत के फैसले को गलत बताया। उन्होंने वर्ष 2014 में सर्वसम्मति से बनाए गए राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को दूरदर्शी कदम बताया। इसका उद्देश्य एससी और एचसी के न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के एकाधिकार को समाप्त करना था। कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े और टीएमसी के सुखेंदु शेखर रॉय सहित विपक्षी नेताओं ने सरकार से उन कदमों की रूपरेखा तैयार करने को कहा है जो वह उठाना चाहती है। जज कैशकांड के बाद सुप्रीम कोर्ट की फजीहत दो कारणों से हो रही है।

न्यायिक नियुक्ति आयोग को रद्द करने और जस्टिस वर्मा का तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट में करने से। आयोग को रद्द करने पर उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति धनखड़ द्वारा राजनीतिक दलों की बैठक के दौरान सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक आयोग को निरस्त करने के फैसले की तीखी भत्र्सना की गई। दूसरी तरफ इलाहाबाद हाइकोर्ट बार एसोसिएशन ने जस्टिस यशवंत वर्मा के तबादले का विरोध किया है। एसोसिएशन ने हड़ताल के अलावा जस्टिस वर्मा की कोर्ट के बहिष्कार की चेतावनी दी है। जस्टिस वर्मा प्रकरण के बाद सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम द्वारा हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर फिर से उंगलियां उठने लगी हैं। न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता नहीं होने और इनमें परिवारवाद को वरीयता दिए जाने को ‘अंकल जज सिंड्रोम’ कहते हैं। जब जज बनाने के लिए अधिवक्ताओं के नाम प्रस्तावित किए जाते हैं तो किसी भी स्तर पर किसी से कोई राय नहीं ली जाती। ऐसे में जिन लोगों का नाम प्रस्तावित किया जाता है, उनमें से कई पूर्व न्यायाधीशों के परिवार से होते हैं या उनके संबंधी होते हैं। भारतीय विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में उच्च न्यायालयों में ‘अंकल जजों’ की नियुक्ति के मामले का उल्लेख किया है, जिसमें कहा गया है कि जिन जजों के परिजन किसी उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे हैं, उन्हें उसी उच्च न्यायालय में नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। विवादों में घिरे जस्टिस वर्मा का अकेला मामला नहीं है, जिससे सुप्रीम कोर्ट के समक्ष परेशानी खड़ी हुई है।

पूर्व में हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव पिछले दिनों विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में बयानबाजी को लेकर चर्चा में रहे। सुप्रीम कोर्ट ने उनके बयान को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट से पूरी जानकारी मांगी, वहीं संसद में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की मांग ने जोर पकड़ा। जस्टिस वी. रामास्वामी पहले न्यायाधीश थे जिनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू की गई थी। उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव 1993 में लोकसभा में लाया गया था। लेकिन यह प्रस्ताव गिर गया था क्योंकि उसे जरूरी दो-तिहाई बहुमत हासिल नहीं हो सका। जस्टिस रामास्वामी 1990 में पंजाब और हरियाणा के मुख्य न्यायाधीश थे। तब उन पर आधिकारिक तौर पर अलॉट किए गए घर पर कब्जा किए जाने का आरोप लगा था। कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन देश के दूसरे जज थे जिन्हें महाभियोग का सामना करना पड़ा था। उनके खिलाफ 2011 में राज्यसभा द्वारा महाभियोग प्रस्ताव लाया गया था। जस्टिस सौमित्र सेन ने महाभियोग चलाए जाने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी पाटिल को अपना इस्तीफा भेज दिया था। वह पहले ऐसे न्यायाधीश थे जिन पर उच्च सदन द्वारा कदाचार के लिए महाभियोग का प्रस्ताव लाया गया था। वर्ष 2015 में राज्यसभा के 58 सदस्यों ने गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश किया था। जेबी पारदीवाला ने आरक्षण के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। सांसदों ने अपने प्रस्ताव में अनुसूचित जाति और जनजाति के खिलाफ उनके अपशब्द कहे जाने पर आपत्ति जताई थी। उस समय उपराष्ट्रपति रहे हामिद अंसारी के पास महाभियोग का प्रस्ताव भेजे जाने के बाद जस्टिस पारदीवाला ने अपने फैसले से वह शब्द हटा लिए थे। भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग के आरोपों पर सिक्किम हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पीडी दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग लाने की तैयारी की गई थी। लेकिन सुनवाई के कुछ दिनों पहले ही दिनाकरन ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। दिनाकरन पर जमीन पर कब्जा करने और आय से अधिक संपत्ति के मामले थे। इसके अलावा 2017 में राज्यसभा सांसदों ने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना हाईकोर्ट के जस्टिस सीवी नागार्जुन रेड्डी के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने के लिए एक प्रस्ताव पेश किया था। मार्च 2018 में विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए एक मसौदा प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए थे। उन पर विपक्षी दलों ने दुव्र्यवहार का आरोप लगाया, लेकिन राज्यसभा के तत्कालीन सभापति ने उसे खारिज कर दिया था।

इसके अलावा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एसके गंगले के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही की प्रक्रिया शुरू हुई थी, लेकिन पूरी नहीं हो पाई। स्वतंत्र भारत के इतिहास में आज तक एक भी जज के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकी है। अर्थात किसी भी जज को महाभियोग के जरिए नहीं हटाया गया है। दरअसल हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के बाद गंभीर किस्म के आरोपों के बाद किसी भी जज को हटाया जाना आसान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के पास सिर्फ हाईकोर्ट के जजों के तबादले की शक्ति है। हटाने का काम संसद का है। संसद में राजनीतिक दल भी ऐसे मुद्दों पर बंटे नजर आते हैं। जस्टिस वर्मा प्रकरण के बाद न्यायिक नियुक्ति आयोग को बहाल करने की मांग बेशक की जा रही हो, किन्तु जजों के खिलाफ भ्रष्टाचार और कदाचार के मामलों में महाभियोग के पारित नहीं होने के लिए राजनीतिक दल ही जिम्मेदार हैं। राजनीतिक दलों के अपने-अपने स्वार्थ हैं। वर्मा प्रकरण की आड़ में केंद्र सरकार जजों की नियुक्ति-तबादले में अपनी हिस्सेदारी चाहती है। ऐसा नहीं है कि जजों की नियुक्ति में लगे भाई-भतीजावाद के आरोप सिर्फ सुप्रीम कोर्ट पर ही लगे हों। बहरहाल, न्यायिक शुचिता का प्रश्न एक बार फिर भारतीय परिदृश्य में उभर आया है।

(स्वतंत्र लेखक)

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