Wednesday, July 23, 2025
Homeलेखजयंती पर विशेष: स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी महारथी थे चंद्रशेखर आजाद

जयंती पर विशेष: स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी महारथी थे चंद्रशेखर आजाद

-मुकेश तिवारी-

चंद्रशेखर आजाद स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी पंक्ति के महारथियों में शामिल थे, जिन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया था। आजाद साहस और त्याग में किसी से कम नहीं थे और उन्होंने अपना सारा जीवन देश की सेवा में अर्पित कर दिया। उनके पूर्वजों के मूल पैतृक स्थान को लेकर तमाम सारी भ्रतिया है। आजाद के पितामह मूल रूप से कानपुर के रहवासी थे, जो बाद में निकटतम जिले उन्नाव के गांव बदरका में आकर बस गए थे। इसलिए आजाद के पिता पंडित सीताराम तिवारी का बचपन बदरका में ही व्यतीत हुआ और यही उनकी

युवावस्था का प्रारंभिक काल भी गुजरा। आजाद के पिता ने तीन शादियां की थी। उनकी पहली पत्नी उन्नाव के ही ग्राम भोरावा की रहने वाली थी। अपनी इस पत्नी से उनके एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ था जो असमय ही चल बसा। सीताराम जी का अपनी इस पत्नी के साथ अधिक दिनों तक निर्वाह न हो सका अतः उन्होंने उसे छोड़ दिया और फिर उनका शेष जीवन अपने मायके में ही गुजर। इसके पश्चात उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया उनकी दूसरी पत्नी उन्नाव के ही सिकंदरापुर की रहने वाली थी। हालांकि दूसरी पत्नी अधिक दिनों तक जिंदा नहीं रह सकी और उसका असमय ही निधन हो गया। इसके पश्चात सीताराम जी ने तीसरी शादी जगरानी देवी से की जगरानी देवी उन्नाव के ही ग्राम चंद्रमन खेड़ा की रहने वाली थी। बदरका में ही तिवारी दंपति को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम उन्होंने सुखदेव रखा। सुखदेव के जन्म के पश्चात सीताराम आजीविका की तलाश में मध्य भारत की रियासत अलीराजपुर चले आए। बाद में उन्होंने अपनी पत्नी जगरानी देवी तथा पुत्र सुखदेव को भी आलीराजपुर बुला लिया। यही ग्राम भावरा में उन्होंने अपना आवास बना लिया। भावरा में ही 23 जुलाई 1906 को चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ। अपने नवजात बालक को देखकर माता-पिता को बड़ी निराशा हुई क्योंकि बालक अत्यंत ही कमजोर था। तिवारी दंपति की कुछ संताने अपने बाल्यकाल में ही मृत्यु को प्राप्त हो चुकी थी अतः मां-बाप आजाद के स्वास्थ्य को लेकर काफी चिंतित रहते थे। हालांकि बाल अवस्था में चंद्रशेखर शारीरिक रूप से कमजोर होने के बावजूद भी बहुत सुंदर थे।

पढ़ाई के दौरान 1919 में हुए जलियांवाले कांड ने देश के नौजवानों को हिला कर रख दिया। महात्मा गांधी ने 1921 में असहयोग आंदोलन का शंखनाद किया तो छात्रों के ज़ेहन में नया जोश उत्पन्न हुआ और भी सभी इस आंदोलन में शामिल हुए। चंद्रशेखर आजाद भी पूरे जोश में थे। उस जमाने को देखते हुए यह बड़ा क्रांतिकारी कदम था। अनेक छात्रों के जत्थे के साथ आजाद की गिरफ्तारी हुई। अंग्रेजी हुकूमत के तौर-तरीकों तरीकों से परिचित आजाद ने अंग्रेजी सिपाही के बेत से पीटे जाने पर भारत माता की जय का जय घोष किया।

आजादी के आंदोलन के दौरान बनारस क्रांतिकारियों का गढ़ था। विलक्षण प्रतिभा और अदम्य साहस के धनी चंद्रशेखर आजाद 16 वर्ष की आयु में ही प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथ नाथ गुप्त और प्रणमेश चटर्जी के संपर्क में आ गए थे। हिंदुस्तान पब्लिक संगठन के सदस्य बनते ही उनका संपर्क राम प्रसाद बिस्मिल से हो गया। फिरंगियों से लड़ने की योजना बनी और राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड हुआ और वे भूमिगत हो गए।

एक वक्त ऐसा भी आया कि असहयोग आंदोलन के दौरान जब फरवरी 1922 में चोरी चोरा की घटना के पश्चात बिना किसी विचार विमर्श के महात्मा गांधी ने अचानक आंदोलन वापस ले लिया तो देश के बहुत सारे नौजवानों की तरह चंद्रशेखर आजाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया, ऐसी स्थिति में रामप्रसाद बिस्मिल, शचिंद्रनाथ सान्याल, योगेश चन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को लेकर एक दल हिंदुस्तानी प्रजातांत्रिक संघ का गठन किया। आजाद भी एच आर ए में शामिल हो गए। इस संगठन ने जब धन इकट्ट करने के लिए गांव के चौधरियों, जमीदारों, और सेठों के घर पर डकैती डालने का निर्णय लिया, राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में एक महिला ने आजाद की पिस्तौल छीन ली लेकिन बलशाली होने के बाबजूद आजाद ने अपने सिद्धांतों के कारण उस महिला पर हाथ नहीं उठाया। जब डकैती के दौरान क्रांतिकारियों के दल पर ग्रामीणों ने हमला बोल दिया तो बिस्मिल ग्रामीणों के हाथों और अपमानित होने के स्थान पर घर के भीतर घुसकर महिला से आजाद की पिस्तौल छीन ली और बिना किसी हिचकिचाहट के आजाद को हड़काते हुए खींचकर घर से बाहर ले आए। इस घटनाक्रम के पश्चात एच आर ए के सदस्यों ने शासकीय प्रतिष्ठानों को ही लूटने का निर्णय लिया। 1जनवरी 1925को एच आर ए ने हिंदुस्तान भर में अपना परचा

द रिवॉल्यूशनरी क्रांतिकारी वितरित किया। जिसमें दल की नीतियों का विस्तार से खुलासा किया गया था। इस परचे में स्वतंत्रता की अलख के बीज को अंकुरित करने के लिए सशस्त्र क्रांति की विस्तार से चर्चा की गई थी। पंरचे में लेखक के रूप में विजय सिंह का छदम नाम दिया गया था। सचिंद्र नाथ सान्याल उक्त बहुचर्चित परचे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बांकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। एच आर ए के गठन के दिन से ही बिस्मिल, सान्याल और योगेश चंद्र चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर काफी मतभेद थे।

एच आर ए की नीतियों के मुताबिक 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को मूर्ति रूप दिया गया हालांकि शाहजहांपुर में इस योजना के बारे में विचार विमर्श करने के लिए जब बैठक आहूत की गई तो एच आर ए के अशफाक उल्ला ख़ां ने इसका खुलकर विरोध किया। उनका दो टूक शब्दों में कहना था कि इससे ब्रिटिश प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ फेंकने पर तुल जायेगा और दुर्भाग्य से ऐसा हुआ भी ब्रिटिश हुकूमत चंद्रशेखर आजाद को तो गिरफ्तार नहीं कर सकी लेकिन ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ हुंकार भरने वाले राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला ख़ां, ठाकुर रोशन सिंह 19 दिसंबर 1927 को तथा उसे दो दिवस पूर्व राजेंद्र नाथ लाहिरी को 17 दिसंबर 1927 को फांसी पर लटका कर मार दिया गया। प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिए जाने से एच आर ए लगभग निष्क्रिय हो गया। एकाध वार राम प्रसाद बिस्मिल और योगेश चटर्जी को फांसी पर लटकाए जाने से पूर्व छुड़ाने की योजना भी बनी। इस योजना में चंद्रशेखर आजाद की अतिरिक्त भगत सिंह को भी शामिल किया गया था लेकिन योजना मूर्त रूप नहीं ले सकी।

चार क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी और 16 को कड़ी कैद की सजा से बौखलाए चंद्रशेखर आजाद ने उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को एक जुट करके 8 सितंबर 1928 को हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इस सभा में भगत सिंह को एच आर ए का प्रचार प्रमुख बनाया गया। साथ यह भी निर्णय लिया गया कि हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा जाए। चंद्रशेखर आजाद ने सेना प्रमुख कमांडर इन चीफ की बागडोर संभाली। इस दल के गठन के पश्चात एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया। हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और यह फैसला है जीत या मौत।

देश की खातिर मर मिटने को तैयार रहने वालेआजाद के प्रशंसकों में पंडित मोतीलाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास जैसी हस्तियां शामिल थी।

शालिग्राम शुक्ला को 1 दिसंबर 1930 को पुलिस ने आजाद से मुलाकात के दौरान शहीद कर दिया। एच आर ए द्वारा किए गए साणडर्स हत्याकांड और दिल्ली असेंबली बम कांड में फांसी की सजा पाए तीनों अभियुक्तों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने ब्रिटिश हुकूमत के समक्ष अपील करने से इंकार कर दिया। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ तीन ने ही प्रिवी कौनिसल में अपील की गई। 11फरवरी 1931को उनकी अपील पर लंदन की प्रिवी कोनिसल में सुनवाई हुई। अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति चाही लेकिन उन्हें बहस करने की अनुमति नहीं दी गई और बहस सुने बिना ही अपील को खारिज कर दिया ऐसी स्थिति में आजाद ने मृत्यु दण्ड पाए तीनों प्रमुख क्रांतिकारियों की सजा कम करने का भरसक प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की सीतापुर जेल में जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी से भी मिले विद्यार्थी जी से विचार विमर्श करने के पश पश्चात वे 27फरवरी 1931को इलाहाबाद में जवाहरलाल नेहरू से मिलने उनके आवास पर गए, आजाद नेहरू जी से निवेदन किया कि वह गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों क्रांतिकारियों की फांसी को उम्र कैद में बदलवाने के लिए दबाव डालें।

नेहरू जी ने जब आजाद के अनुरोध को ठुकरा दिया। तो आजाद खफा होकर आनंद भवन से चले आए और साइकिल पर सवार होकर अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्र सुखदेव राज से विचार विमर्श करने चले आए, इसी बीच मुखबिर की सूचना पर पुलिस अधीक्षक ने आजाद को उल्फ्रेड पार्क में घेर लिया। तुम कौन हो पूछने के साथ ही उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना पुलिस अधीक्षक ने अपनी पिस्तौल का रुख आजाद की ओर कर दिया। इस गोलीबारी में चंद्रशेखर आजाद की जाघ। चोटिल हो गई। आजाद ने घिसटकर कर एक जामुन के वृक्ष की ओट लेकर अपनी माउजर का रुख पुलिस अधीक्षक की ओर कर उसके ऊपर गोली दाग दी। आजाद का निशान सही लगा उनकी गोली ने पुलिस अधीक्षक की कलाई तोड़ दी। एक घनी झाडी के पीछे सीआईडी इंस्पेक्टर विश्वेश्वर सिंह छुपा हुआ था उसने स्वयं को सुरक्षित समझ कर आजाद को गाली दी। गाली को सुनकर आजाद को क्रोध आ गया जिस दिशा से गोली की आवाज आई थी उसे दिशा में आजाद ने गोली दाग दी निशाना इतना सटीक था कि आजाद की गोली से विश्वेश्वर सिंह का जबड़ा टूट गया।

काफी समय तक आजाद ने जमकर अकेले पुलिस अधीक्षक और विश्वेश्वर सिंह से मुकाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेव को पहले ही वहां से भगा दिया। इस बीच पुलिस अधीक्षक की कई गोलियां आजाद के शरीर में समा गई। उनके माउजर में सिर्फ आखरी गोली बची थी। अत उन्होंने ने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूंगा तो जीवित गिरफ्तार होना पड़ेगा। अतः उन्होंने अपनी कनपटी पर माउजर की नाल लगाकर के आखिरी गोली स्वयं पर चला दी गोली उनके लिए जानलेवा साबित हुई और उनका स्थल पर ही निधन हो गया। आजाद ने जब अंग्रेजों की यातनाओं से बचने के लिए स्वयं गोली मारकर खुदकुशी की उस वक्त उनकी उम्र महज 24साल की थी। आजाद की अंतिम संस्कार के पश्चात शमशान घाट से आजाद की अस्थियां लेकर एक विशाल जुलूस निकाला गया। जुलूस में शामिल होने आए लोगों की भीड़ से इलाहाबाद की मुख्य सड़को पर जाम लग गया जुलूस को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे समूचा इलाहाबाद उमड़ पड़ा हो।

(लेखक मध्य प्रदेश शासन से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है)

(यह लेखक के व्य‎‎‎क्तिगत ‎विचार हैं इससे संपादक का सहमत होना अ‎निवार्य नहीं है)

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

वेब वार्ता समाचार एजेंसी

संपादक: सईद अहमद

पता: 111, First Floor, Pratap Bhawan, BSZ Marg, ITO, New Delhi-110096

फोन नंबर: 8587018587

ईमेल: webvarta@gmail.com

सबसे लोकप्रिय

Recent Comments