-जगदीश रत्तनानी-
कुछ व्यवसायों या सेवाओं को महान सेवाओं के रूप में देखना असामान्य नहीं है क्योंकि यह देखा जाता है कि उनका क्या असर होता है- शिक्षा नागरिकों की एक नई पीढ़ी को प्रभावित करती है और चिकित्सा बीमारों को ठीक करती है। इन दोनों क्षेत्रों को बाजार की गलाकाट स्पर्धा से बाहर रखने इच्छा है, खासतौर पर उस समय जब यह स्पर्धा अन्य क्षेत्रों में जारी है जिसे हम विकास कहते हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि स्वास्थ्य और शिक्षा आम भारतीयों की पहुंच से बाहर हैं। एक बात दोहराने के बावजूद उन्होंने व्यवस्था के सिर पर कील ठोंक दी है। इस महीने की शुरुआत में इंदौर में किफायती कैंसर देखभाल सुविधा के उद्घाटन के दौरान भागवत ने कहा कि ‘अच्छी स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा सुविधाएं तथा इसकी सभी योजनाएं आज समाज के प्रत्येक व्यक्तिके लिए आवश्यकताएं बन गई हैं लेकिन दुर्भाग्य से दोनों क्षेत्रों में गुणवत्तापूर्ण सेवाएं आम आदमी की पहुंच और वित्तीय क्षमता से परे हैं। ‘
कुछ लोग इसे भाजपा का वैचारिक आधार आरएसएस के प्रमुख द्वारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की नीतियों और विकास के उसके मॉडल की परोक्ष आलोचना के रूप में देखेंगे। आखिरकार यह टिप्पणी विकास के एक प्रमुख पहलू ‘विकासशील भारत’ को छूती है जिसे सरकार द्वारा पैक किया और बेचा जा रहा है- ‘जिसमें सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य’ नहीं है जो विकास को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए आवश्यक है।
वैसे किसी भी राजनीतिक सोच से परे होकर देखें तो भागवत और आरएसएस की बुलंद आवाज इस मामले में भाजपा शासन के तहत भारत में एक ज्वलंत मुद्दे को उजागर करने का काम करती है जिसे आम नागरिक दिल की गहराईयों तक महसूस करता है। यह एक सीधा-सादा तथ्य है कि शिक्षा का स्तर बेहतर होने के बजाय वह आम लोगों की पहुंच से बाहर हो रही है। स्वास्थ्य एक ऐसा व्यवसाय बन गया है जो मरीज की देखभाल की बजाय निवेश, आईपीओ और प्रोत्साहन के संबंध में बोला जाता है। कुछ शर्मनाक प्रथाएं विकास के पैरों तले पनपती हैं। इसके साथ ही भारत में कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा में विश्वस्तरीय सुविधाएं भी उपलब्ध हैं ताकि हम आम तौर पर विपन्नता के सागर में विश्वस्तरीय टापुओं के साथ रह सकें।
कुछ व्यवसायों या सेवाओं को महान सेवाओं के रूप में देखना असामान्य नहीं है क्योंकि यह देखा जाता है कि उनका क्या असर होता है- शिक्षा नागरिकों की एक नई पीढ़ी को प्रभावित करती है और चिकित्सा बीमारों को ठीक करती है। इन दोनों क्षेत्रों को बाजार की गलाकाट स्पर्धा से बाहर रखने इच्छा है, खासतौर पर उस समय जब यह स्पर्धा अन्य क्षेत्रों में जारी है जिसे हम विकास कहते हैं। आरएसएस प्रमुख ने एक तरह से इस बात को दोहराते हुए कहा- च्च्पहले स्वास्थ्य और शिक्षा एक सेवा के रूप में माने गए थे लेकिन आज दोनों का व्यवसायीकरण हो गया है। ज्ज्
दूसरी तरफ नीति में ठोस परिवर्तन के बिना स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों को सर्वसामान्य के लिए आसान बनाने हेतु समाज को जागृत करना, लागत कम रखना या उन्हें मोटे तौर पर डी-मार्केटाइज़ करने की बात करना एक ऐसे समाज में दान और दयालुता की आशा करना है जो अत्यधिक बाजारीकृत हो गया है। प्रसिद्ध अकादमिक और लेखक माइकल सैंडल मार्केट इकॉनामी और मार्केट सोसायटी के बीच अंतर की बात करते हैं- मार्केट सोसायटी दक्षता ला सकती है जबकि मार्केट इकॉनामी हर चीज पर कीमत लगाती है ताकि ऐसा कुछ भी न हो जिसे पैसा नहीं खरीद सकता।
यह तर्क देना संभव है कि भारत लगभग ‘कानूनी’ तौर पर मार्केट इकॉनामी बन गया है लेकिन ‘वास्तव’ में एक मार्केट सोसायटी के रूप में काम करता है जो एक ऐसे देश के लिए उल्लेखनीय रूप से उपयोगी नहीं है जिसके संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ शब्द है। शायद ही कुछ ऐसा है जिसे शीर्ष 1 प्रतिशत नहीं खरीद सकते हैं- हिफाजत, सुरक्षा और सफलता के लिए वे इतना कमाते हैं कि अपने खर्चों का खुद भुगतान कर सकते हैं। चूंकि केवल कुछ ही भुगतान कर सकते हैं इसलिए बाकी पीड़ित होंगे, वे शिकायत करेंगे और दुख जाहिर करेंगे कि असमानता हर क्षेत्र में, विशेष रूप से अस्पतालों और स्कूलों में किस तरह का खेल खेलती है।
इस प्रकार की व्यवस्था में स्वास्थ्य बीमा कंपनियां अपनी पाई-पाई क्यों न वसूल करें, चिकित्सा शिक्षा में सक्रिय उद्योग अत्यधिक शुल्क के बिना कैसे जीवित रह सकती है तथा डॉक्टरों या शिक्षकों को कम वेतन के लिए क्यों समझौता करना चाहिए? डॉक्टरों और शिक्षकों को भी आवास, यात्रा, उपकरण, सामग्री और सीखने की आवश्यकता होती है- जो सभी महंगे हैं तथा जिनका बाजारीकरण किया जाता है। क्षेत्र-विशेष में काम करने वाली परोपकारी संस्था (सेक्टोरल चैरिटी) आंशिक रूप से काम करेगी। वास्तव में भारत के कुछ सर्वश्रेष्ठ अस्पतालों एवं शैक्षणिक संस्थानों को आधिकारिक तौर पर चैरिटी संस्थानों के रूप में वर्गीकृत किया गया है। वैसे वास्तविक रूप से बहुत कम संस्थाएं धर्मार्थ हैं। बाजार का आदेशात्मक रुख सारी व्यवस्था को नियंत्रित करता है और यह सुनिश्चित करता है कि समय के साथ अधिकांश आम भारतीय इस लाभ से दूर रहें।
एक न्यूनीकरणवादी दृष्टिकोण जो कर्तव्य, जिम्मेदारी या सामान्य रूप से एक गैर-आर्थिक मानसिकता के विचार को इंजेक्ट करना चाहता है, चुनिंदा रूप से यह पहचानने से इनकार करता है कि समस्या बहुत व्यापक है। इस मामले में स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र की विफलता एक बड़ी समस्या, विकास की काल्पनिक कहानी एवं काल्पनिक विशाल अर्थव्यवस्था का लक्षण हैं जो आंकड़े तो देखती है लेकिन उद्देश्य नहीं, जिसने अपने शानदार हवाई अड्डों और बुलेट ट्रेनों में चमकने की चाह में सीढ़ी के निचले पायदान पर बैठे लोगों की अनदेखी की है।
यह वह नजरिया है जिसके कारण भागवत ने एक मंत्री का बयान उद्धृत किया जिसमें कहा गया है कि शिक्षा 10 खरब डॉलर का व्यवसाय है या वास्तव में नीति आयोग ने एक पेपर में लिखा है जिसमें निम्नलिखित बातें कही गई हैं: ‘स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में निवेशकों (उद्यम पूंजी और निजी इक्विटी) की काफी रुचि देखी गई है, जिसमें लेनदेन का मूल्य वर्ष 2011 के 940 लाख अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वर्ष 2016 में 1, 2750 लाख अमेरिकी डॉलर हो गया है- जो 13.5 गुना से अधिक की वृद्धि है… वैश्विक स्वास्थ्य क्षेत्र की कंपनियों द्वारा किए गए निवेशों ने एक आकर्षक स्वास्थ्य सेवा निवेश के गंतव्य के रूप में भारत में बाजार की धारणा को मजबूत किया है। ‘
इस रास्ते पर बने रहने का मतलब मुसीबत मोल लेना है। कोई भी निजी इक्विटी या उद्यम पूंजी सेवा के उद्देश्य के लिए नहीं आती है। इस जाल से बाहर निकलने के लिए भारत सरकार को पुनर्विचार करना होगा व विकास की कहानी के उद्देश्य को फिर से खोजना होगा। हम कहते हैं कि भारत दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है लेकिन इसका क्या मतलब है जब भारतीय आबादी के शीर्ष 10 फीसदी के पास कुल राष्ट्रीय धन का 75 प्रतिशत से अधिक हिस्सा है जबकि सबसे गरीब आधी आबादी अपनी संपत्ति में केवल 1प्रति सैकड़ा की वृद्धि देखती है। आक्सफैम की हालिया रिपोर्ट में इसका उल्लेख है।
फिर भी हमारे आसपास ऐसे मॉडल हैं जिन्होंने अद्भुत काम किया है। वे न केवल भारत को बल्कि दुनिया को धर्म के वास्तविक अर्थ बताते हुए उस पर चलने का रास्ता दिखाते हैं। उनमें से एक प्रसिद्ध अरविंद आई केयर सिस्टम है, जो एक ऐसा प्रकाशस्तंभ है जो अपनी सेवाओं की मार्केटिंग पर एक रुपया भी खर्च नहीं करता है बल्कि सबसे दूर और सबसे कमजोर लोगों तक पहुंचने के लिए संसाधनों को बाहर निकालता है। यह गांधी की पसंदीदा पुस्तक ‘अन टू दिस लास्ट’ का एक जीवंत उदाहरण है। अरविंद एक ऐसी प्रणाली है जो जिस तरह चमकती है वैसा ही काम भी करती है। इसे हासिल करने के लिए एक अलग किस्म के संकल्प की आवश्यकता होती है जो उद्देश्य और विनम्रता की उच्च भावना में निहित है न कि प्रचार या प्रभुत्व के अधिकार की अतिरंजित भावना में है जो आज भारत की पहचान बन गई है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)