-सर्वमित्रा सुरजन-
अनुभवी लोग कहते हैं दर्द बांटने से कम होता है, खुशी बांटने से बढ़ती है। राहुल गांधी इस समय राजनीति के साथ-साथ मानवता की ऐसी ही मिसाल कायम करते जा रहे हैं। जब मई में राहुल गांधी पुंछ गए थे तो वे उस क्राइस्ट पब्लिक स्कूल भी गए थे, जहां पढ़ने वाले 12 साल के जुड़वां बच्चे उर्बा फातिमा और ज़ैन अल की पाक हमलों में मौत हो गई थी।
राहुल गांधी पर एक बड़ी खबर मंगलवार को सामने आई। ऑपरेशन सिंदूर के जवाब में पाकिस्तान की तरफ से हुई गोलीबारी से जम्मू-कश्मीर के पुंछ जिले में भारी तबाही मची थी। कई निर्दोष नागरिकों ने इन हमलों में अपनी जान गंवाई थी। पाकिस्तान के हमले और मोदी सरकार की लापरवाही ने कई परिवारों को उजाड़ दिया है, कई बच्चे अनाथ हो चुके हैं। राहुल गांधी ने अब ऐसे 22 बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का पूरा जिम्मा उठाया है। जम्मू-कश्मीर कांग्रेस प्रमुख तारिक हामिद कर्रा ने कहा है कि राहुल गांधी पुंछ के उन 22 बच्चों की शिक्षा का पूरा खर्चा उठाएंगे जिन्होंने अपने दोनों माता-पिता पाक गोलीबारी में गंवा दिए थे। इन बच्चों की पढ़ाई का खर्च राहुल गांधी तब तक उठाएंगे, जब तक ये स्नातक नहीं हो जाते। इसके अलावा अगर कोई बच्चा इंजीनियरिंग या मेडिकल जैसे प्रोफेशनल कोर्सेस में प्रवेश लेता है, तो उसमें भी खर्च का जिम्मा राहुल गांधी ही उठाएंगे।
गौरतलब है कि दो महीने पहले मई में राहुल गांधी ने पुंछ का दौरा किया था। उन्होंने तब अपने स्थानीय नेताओं से अपील की थी कि वे प्रभावित बच्चों की एक सूची तैयार करें, जिन्हें वाकई मदद की जरूरत है। उसके बाद ही राज्य कांग्रेस इकाई ने सरकारी रिकॉर्ड्स खंगाल कर, सर्वे कर सूची तैयार की। बुधवार को इन बच्चों के लिए मदद की पहली किस्त जारी भी कर दी गई है। जब राहुल पुंछ गए थे, उस वक्त के बहुत से वीडियो सामने आए, जिनमें वे उजड़े मकानों में गए, गली-गली घूमकर उन्होंने पुंछ के स्थानीय लोगों से उनका दर्द और डर दोनों साझा किया था। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, स्कूल सब जगह पाकिस्तान ने हमले किए थे। आम लोगों को निशाना बनाया था। अगर ऑपरेशन सिंदूर शुरु करने के साथ ही मोदी सरकार ने एहतियात बरती होती तो शायद मासूम लोगों की जान बचाई जा सकती थी। लेकिन सरकार ने सीमावर्ती इलाकों से लोगों को सुरक्षित स्थानों पर नहीं भेजा, जबकि संसद में प्रधानमंत्री मोदी ने ही दावा किया है कि 9 मई को अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने उन्हें आगाह किया था कि पाकिस्तान बड़ा हमला करने वाला है। इसके जवाब में नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि अगर पाकिस्तान का ये इरादा है तो उसे बहुत महंगा पड़ेगा और हम उससे भी बड़ा हमला करेंगे और उसका जवाब देंगे।
किसी की धमकी में न आना अच्छी बात है, लेकिन पाकिस्तान को क्या महंगा पड़ेगा और क्या सस्ता, इस बारे में बात करने से बेहतर होता कि श्री मोदी इस बात की चिंता करते कि देश के लोगों की जान कैसे खतरे में पड़ चुकी थी। पहलगाम में असावधानी का नतीजा भुगतने के बावजूद सीमावर्ती इलाकों में फिर वही असावधानी सरकार ने दिखाई। जिसका खामियाजा आम नागरिकों ने भुगता। इसके बाद भी सरकार को अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने विदेशी मीडिया की आलोचना करते हुए कहा था कि ऑपरेशन सिंदूर सफल रहा है और इसमें भारत को हुए नुकसान की खबरें गलत हैं, हमारा एक कांच भी नहीं टूटा है। ऐसा ही दावा गृहमंत्री अमित शाह ने मंगलवार को संसद में किया कि मोदी सरकार जब से आई है जम्मू-कश्मीर के किसी नागरिक की जान हमले में नहीं गई है। देश का मीडिया सरकार का भोंपू बनकर ऐसी खबरों को इतना प्रचारित करता है कि लोग उसे ही सच मानने लगते हैं। लेकिन जो सामने घटा है, क्या उससे आंख मूंदी जा सकती है। अगर एक भी कांच नहीं टूटा या एक भी नागरिक की मौत नहीं हुई तो फिर राहुल गांधी के बाद खुद अमित शाह ने पुंछ का दौरा क्यों किया था।
बहरहाल संसद में दो दिन तक जिस अंदाज में सरकार ने ऑपरेशन सिंदूर पर चर्चा चलाई उससे जाहिर हो गया कि पहलगाम घटना को भी श्री मोदी ने आपदा में अवसर की तरह ही लिया है। अपने प्रचार के लिए सेना की वर्दी पहनकर खुद के आदमकद पोस्टर नरेन्द्र मोदी ने देश भर में लगवाए, सिंदूर शब्द को लेकर बेतुकी बातें कीं, दुनिया भर में प्रतिनिधिमंडल को भेजने के लिए जनता के करोड़ों रूपए खर्च कर दिए। ऑपरेशन सिंदूर के पोस्टर समेत इस पूरे प्रचार-प्रसार के लिए जितना सरकारी धन खर्च किया, उसका थोड़ा सा हिस्सा पहलगाम पीड़ितों या अनाथ बच्चों पर खर्च किया जा सकता है, ऐसा खयाल भाजपा या प्रधानमंत्री के जेहन में नहीं आया होगा, क्योंकि उनकी निगाह लोगों के दर्द से ज्यादा दर्द का सियासी लाभ लेने पर रहती है। लॉकडाउन के समय पीएम केयर्स फंड बना लिया, लेकिन उसका भी हिसाब-किताब देने में आनाकानी होती रही।
ऐसा नहीं है कि इस देश में प्राकृतिक आपदाएं या आतंकी घटनाएं, युद्ध सब अभी हो रहे हैं, इन सबका सामना भारत ने पहले भी किया है। पहले भी सरकारों से आकलन में या हालात संभालने में गलतियां हुई हैं। लेकिन ऐसा दुस्साहस किसी ने नहीं किया कि जिन घटनाओं में मासूम नागरिक मारे जाएं, उन पर भी राजनैतिक रोटी सेंकी जाए। अभी यही सब हो रहा है और ऐसे में राहुल गांधी के परोपकार या मानवीयता दिखाने वाले फैसले नयी उम्मीद बंधाते हैं। जब निर्भया कांड हुआ था, तब पीड़िता के इलाज की पूरी व्यवस्था तत्कालीन सरकार ने की थी, लेकिन उसके बाद पीड़िता के परिवार की सुध लेने का काम निजी तौर पर राहुल गांधी ने किया, निर्भया के भाई के पायलट बनने के सपने को साकार किया। रामचेत मोची की दुकान पर राहुल रुके थे और उनके हालात को समझा था। कुछ ही दिनों में रामचेत की दुकान पर जूते सिलने की नयी मशीन आ गई, अब उनका काम इतना अच्छा चल रहा है कि उन्होंने दिल्ली आकर अपने हाथों से बनाए जूते राहुल को भेंट किए और कहा कि भईया के कारण जिंदगी बदल गई। हरियाणा में किसानों के साथ राहुल ने काम किया, उनके घर की महिलाओं के हाथ का भोजन किया, उन्होंने दिल्ली आने की इच्छा जतलाई तो बाकायदा दिल्ली बुलाया और एक महिला के मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया। अमेरिका में डंकी रूट से गए प्रवासी भारतीयों की तकलीफों को समझा, देश लौटकर उनके परिजनों से मिले, एक बच्चे की उसके पिता से बात करवाई। अपने संसदीय क्षेत्र रायबरेली में बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक लाने वाले बच्चों से मिले, उन्हें लैपटॉप दिया। ये कुछ गिनती के उदाहरण हैं, जिनमें राहुल ने लोगों की मदद की है। कितने लोगों की मदद तो राहुल गांधी ने चुपचाप की होगी, इसका पता भी नहीं, क्योंकि उनकी खबरें बाहर नहीं आईं।
अनुभवी लोग कहते हैं दर्द बांटने से कम होता है, खुशी बांटने से बढ़ती है। राहुल गांधी इस समय राजनीति के साथ-साथ मानवता की ऐसी ही मिसाल कायम करते जा रहे हैं। जब मई में राहुल गांधी पुंछ गए थे तो वे उस क्राइस्ट पब्लिक स्कूल भी गए थे, जहां पढ़ने वाले 12 साल के जुड़वां बच्चे उर्बा फातिमा और ज़ैन अल की पाक हमलों में मौत हो गई थी। इन बच्चों के दोस्तो, सहपाठियों और बाकी बच्चों को अपने दो साथियों की अकाल मौत पर कैसा महसूस हो रहा होगा, इस पीड़ा को राहुल गांधी ने समझा। उन्होंने वहां बच्चों को हौसला बंधाया कि अभी सब ठीक नहीं है, लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। राहुल गांधी ने बच्चों से कहा कि इस स्थिति से निपटने के लिए आपका एक ही तरीका होना चाहिए। खूब मन लगाकर पढ़ाई करें, जी भर कर खेलें और खूब सारे नए दोस्त बनाएं। आज के वक्त में बाल मनोविज्ञान को समझ कर युद्ध जैसे कठिन हालात में बच्चों को हौसला और उम्मीद बनाए रखने की सीख देना और इस तरह उन्हें सांत्वना देना कि मन में कड़वाहट बिल्कुल न आए, जब वे बड़े हों तो नफरत की जगह मोहब्बत से बात करना सीखें, ऐसा करने वाले लोग बिरले ही हैं। राजनीति में तो ऐसे लोग और कम हो चुके हैं। लेकिन अच्छा है कि राहुल गांधी आज के साथ-साथ भविष्य के नागरिकों की भी सुध ले रहे हैं।