-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
वैदिक साहित्य में महाकुम्भ को सर्वोच्च साधनाकाल के रूप में परिभाषित किया गया है। प्रयागराज में चल रहा वर्तमान कालखण्ड नये-नये विवादों के कारण सुर्खियों के बना हुआ है। धर्म के मुद्दे पर विवादास्पद वक्तव्यों का बाजार गर्म है। कुम्भ को लेकर राजनैतिक माफियों की वोट बटोरो नीति के तहत चल रहे शब्द युध्द के अलावा सनातन के ठेकेदारों की फौजें आपस में भिडकर अध्यात्म के धरातल पर अहंकार का तांडव करने में जुटी हैं। एक ओर संसद में भगदड से हुई मौतों पर तीखी बहस हो रही है तो दूसरी ओर मृत्यु पर उपवास और मोक्ष की प्राप्ति पर तलवारें खिचीं हैं। ज्योतिर्मठ के 46 वें शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द जी सरस्वती ने जहां संसद में कांग्रेसी सांसद राहुल गांधी व्दारा भाजपा नेताओं पर लोगों को साम्प्रदायिक आधार पर बांटने वाले आरोप का समर्थन किया है वहीं श्रीबागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री के व्दारा प्रयागराज भगदड में मरने वालों को मोक्ष की प्राप्ति वाले बयान का विरोध किया। ज्ञातव्य है कि ज्योतिर्मठ के पूर्व शंकराचार्य और स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द जी सरस्वती के गुरु स्वामी स्वरूपानन्द जी सरस्वती अपने जीवनकाल में कांग्रेस के पक्षधर होने के आरोपों में घिरे रहे। कहा तो यहां तक जाता है कि उन्होंने सनातन संस्कृति को तार-तार करते हुए देश की चार पीठों में से दो पर कब्जा जमा लिया था। ज्योर्तिमठ के साथ-साथ उन्होंने व्दारकामठ का सिंहासन भी हथिया लिया था। इस प्रकार चार पीठों पर पहली बार लम्बे समय तक तीन ही शंकराचार्य आसीन रहे। चर्चा है कि गुरु के पदचिन्हों पर चलते हुए ज्योतिर्मठ के वर्तमान शंकराचार्य भी निरंतर विवादों में घिरे रहते हैं। दूसरी ओर श्री बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर पंडित धीरेन्द्र कृष्ण शास्त्री का भगदड में मरने वालों की मोक्ष प्राप्ति वाला बयान भी अंधविश्वास में जकडा हुआ है। इस विवाद के दौनों पक्षों को जनआलोचना का शिकार होना पड रहा है। सत्य को जानने के लिए गुरु के सानिध्य में कठिन प्रयासों की आवश्यकता होती है। सनातन की मानवीय व्याख्याओं का प्रमाणीकरण तो परा विज्ञान के अद्भुत प्रयोगों पर आधारित है जहां अंधविश्वास का कोई स्थान नहीं है। परा विज्ञान के अनूठे सिध्दान्तों का प्रतिपादन करके आश्चर्यजनक परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। मोक्ष की अवधारणा का विश्लेषण तो गूंगे से गुड का स्वाद जानने की कोशिश है। जो चला वही पहुंचा। लक्ष्य स्वयं चलकर नहीं आता, उस तक पहुंचने का उद्यम करना पडता है। शाश्वत के साथ एकाकार होना ही मोक्ष की परिणति है। ऐसी स्थिति शारीरिक अस्तित्व के साथ भी प्राप्त की जा सकती है। श्रीमद्भगवत गीता में पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को शरीर में रहते हुए भी मोक्ष प्राप्ति के उपाय सुझाये थे। ऐसे में किसी स्थान विशेष पर मृत्यु हो जाने से आत्मा के मोक्षीकरण की घोषणा को सत्य कदापि नहीं माना जा सकता। अभी तक महाकुम्भ में इस तरह के अनेक विवादों ने जन्म लिया। कभी किन्नर अखाडे में महामण्डलेश्वर की उपाधि पर प्रश्नचिन्ह अंकित हुए तो कभी पूजा विधान पर सवालिया निशान लगे। कभी सर्वोच्च बनने का दावा सामने आया तो कभी हिन्दुत्व के ठेकेदारों ने आपस में ही ताल ठोक ली। कहीं कल्पवास की कालगणना पर मतान्तर स्थितियां निर्मित हुईं तो कहीं वीआईपी घाट को लेकर आक्रोश दिखाई दिया। सर्वस्व त्यागकर स्वयं का पिण्डदान करने वालों की महात्वाकांक्षा का पुनर्जागरण 144 वर्ष बाद दुर्लभ योग वाले महाकुम्भ में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। जब संसार को छोड दिया, काया का पिण्डदान कर दिया, जन्म के कुटुम्ब को त्याग दिया, शाश्वत लक्ष्य को स्वीकार किया तब पदवी की आकांक्षा, दूसरों की उपलब्धियों पर ईष्या, जलन की भावना का प्रदर्शन, अपने से वरिष्ठ पर टिप्पणी, ज्ञानी होने का दम्भ, तपस्या का अभिमान और ख्याति की मृगमारीचिका के पीछे दौडते हुए सर्वोच्च पद पाने की इच्छा जैसे तामसी विकारों के मायाजाल में जकडे व्यक्ति को संत, साधु या सन्यासी कहना कहां तक समाचीन है? परा विज्ञान के प्रारम्भिक सूत्रों में महारत हासिल कर लेने वाले संसार के सामने भले ही सिध्द बनकर उभर रहे हैं परन्तु अध्यात्म जगत में वे एक सामान्य मानव तक की पहचान खो चुके होते हैं। प्रत्येक चमकदार वस्तु हीरा नहीं हो सकती। वैदिक साहित्य में सामान्य साधुओं की पात्रताओं का निर्धारण किया गया है। निन्दा और स्तुति, सम्मान और अपमान, अपेक्षा और उपेक्षा, सर्दी और गर्मी, दिन और रात में सम रहने वाले व्यक्ति को ही साधक मार्ग का पथिक कहा जा सकता है। विभेद, विभाजन और विव्देष जैसे कारकों को अंगीकार करके काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के पाश में जकडे भगवांधारियों को आत्म-चिन्तन करना होगा अन्यथा आने वाले समय में उनके कथित चमत्कारों को कडी चुनौतियां प्राप्त होने लगेंगी और फिर पीआर सस्थाओं की दम पर आगे बढना कठिन ही नहीं होगा बल्कि असम्भव हो जायेगा। असत्य के आवरण में लिपटा शरीर ही जब नाशवान है तो फिर वैभव की विरासत एकत्रित करके आने वाली पीढी को विलासता के सागर में डुबोना कहां तक उचित है। दिखावे के आधार पर बाह्य जगत को तो प्रभावित किया जा सकता है परन्तु आन्तरिक जगत की यात्रा पर निकल चुके साधकों की जमात में प्रवेश पाना कदापि सम्भव नहीं होगा। प्रारब्ध के संचित पुण्यफलों का दुरुपयोग करने वाली अनेक बाल प्रतिभाओं ने कम समय में ही अपने भाग्य की जमा पूंजी समाप्त कर ली और फिर गुमनामी के अंधेरे में डूब गईं। कालान्तर में उनका नाम भी इतिहास के पन्नों से मिट गया। सम्मान की पराकाष्ठा पर बैठने की ललक भी साधक के लिए एक ही विकृति है। जब तक इच्छायें जीवित है तब तक साधना की आगामी कक्षा में प्रवेश मिल ही नहीं सकता। इसी कारण वास्तविक साधक अपने कल्पवास की कुटिया में एकान्त सेवन करते हुए परमसत्ता से साथ योग की नई सीढियां तय कर रहे हैं। उन्हें सांसारिकता की लुभावनी मादकता स्पर्श तक नहीं कर पा रही है। वे समभावी होकर आत्मा के वास्तविक लक्ष्य के भेदन में जुटे हैं। इनके समानान्तर ही महाकुम्भ में संतत्व की ख्याति से महिमा मण्डित भगवाधारियों के मध्य अहंकार का खुला तांडव भी जारी है जो अपने प्रतिदन्दियों को धूल चटाने की चालें चलने में मगन है। कहीं धर्म संसद का स्वरूप सामने आया, तो कहीं धर्म परिषद का। कहीं अखाडों की परम्परायें नया रूप ले रहीं हैं, तो कहीं सनातन की परिभाषाओं की मनमानी व्याख्यायें सामने आ रहीं हैं। अपने चयनित मार्ग को सत्य मानने की सभी को स्वतंत्रता है परन्तु दूसरों को बिना प्रमाण के झूठा कहने का अधिकार किसी को नहीं है। ऐसे में धर्म जैसे निजिता से जुडे मुद्दे पर विवादों का अन्तहीन सिलसिला कदापि उचित नहीं है। यदि समय रहते इस क्रम को रोका नहीं गया तो धर्म का वास्तविक स्वरूप ही विकृत हो जायेगा जिसके लिए वर्तमान पीढी को कटघरे में खडा होना ही पडेगा। इस बार बस इतनी ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।