-वेबवार्ता-डेस्क-
संसद का मानसून सत्र सोमवार से शुरू हो गया। यह सत्र 21 अगस्त तक चलेगा और इस दौरान 21 बैठकें तय की गई हैं। सरकार ने 17 विधेयक पेश और पारित करने हैं। हालांकि उनमें से कोई भी विवादास्पद नहीं लगता। क्या संसद का मानसून सत्र सुचारू रूप से चल पाएगा, बहस और विमर्श के जो मुद्दे और विषय हैं, क्या उन पर हंगामा नहीं होगा? संसद की कार्यवाही बाधित नहीं होगी और बार-बार सदन स्थगित करने की नौबत नहीं आएगी? ये कुछ अहम सवाल हैं, जो संसद के प्रत्येक सत्र से पहले उठाए जाते रहे हैं। दरअसल ये सवाल अनिवार्य हो गए हैं, क्योंकि यह परंपरा बन चुकी है कि संसद की कार्यवाही के दौरान विपक्ष ने हंगामा, नारेबाजी, पोस्टरबाजी करनी ही है। इस संदर्भ में आज का विपक्ष अरुण जेतली और सुषमा स्वराज के पुराने बयानों को दोहराता रहता है। आज दोनों नेता दिवंगत हैं, लेकिन बयान देने के वक्त वे प्रतिपक्ष के नेता थे। सदन में लगातार हंगामा कर, कई-कई दिनों तक, कार्यवाही को बाधित करना हम ‘लोकतंत्र’ नहीं मानते। हालांकि विरोध करने का, स्वतंत्र अभिव्यक्ति का, संविधान ने हमें मौलिक अधिकार दिया है, लेकिन संसद के भीतर उसकी गलत व्याख्या की जाती रही है। सदन में हुड़दंग मचाना, अध्यक्ष के आसन तक आकर नारेबाजी करना, नियमों की किताब फाड़ देना, मेजों पर चढ़ कर नृत्य की मुद्राएं बनाना कमोबेश किसी संसदीय लोकतंत्र के प्रतीक-चिह्न नहीं हैं। संसद में विरोध जताने के निश्चित नियम हैं अथवा सांसद ‘व्यवस्था का सवाल’ उठा कर हस्तक्षेप कर सकते हैं, लेकिन बीते अतीत में भाजपा ने कई-कई दिनों तक संसद की कार्यवाही चलने नहीं दी थी, लिहाजा आज का विपक्ष भी प्रतिरोध जताते हुए वैसा ही करेगा, यह तो भारत के सर्वोच्च, गरिमापूर्ण मंदिर की कोई संसदीय विरासत नहीं होनी चाहिए। भारत दुनिया का सबसे बड़ा, विविध और सफल लोकतंत्र है, लिहाजा उसका गौरव और उसकी मर्यादा भी हमारे निर्वाचित सांसदों के हाथों में ही है। हमें यकीन है कि हमारे प्रतिपक्षी सांसद इन शब्दों को पढ़ कर सचेत और जागृत नहीं होंगे, क्योंकि हमारी राजनीति की बुनियाद और संचालन दकियानूसी और आलाकमानी है। इस बार भी कई मुद्दों पर विपक्ष के ढेरों सवाल हैं। सबसे अहम है-ऑपरेशन सिंदूर।
पहलगाम नरसंहार, खुफिया तंत्र की नाकामी, गायब सुरक्षा-व्यवस्था, नतीजतन पाकिस्तान के साथ करीब 90 घंटे का युद्धनुमा संघर्ष, अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप का संघर्ष-विराम कराने का बार-बार दावा आदि सवाल ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से ही नत्थी हैं। भारत की विदेश नीति पर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं। राष्ट्रपति ट्रंप के ‘4-5 लड़ाकू विमान गिराए जाने’ वाला बयान भी हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य तैयारियों से जुड़ा है। विपक्ष इन सवालों पर संसद में प्रधानमंत्री मोदी के वक्तव्य का आग्रह करता रहा है। प्रधानमंत्री 23-24 जुलाई को ब्रिटेन और 25-26 जुलाई को मालदीव के प्रवास पर हैं। हालांकि संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजिजू ने विपक्ष को आश्वस्त करने की कोशिश की है कि सरकार हर मुद्दे पर चर्चा करने और उसका माकूल जवाब देने को तैयार है। प्रधानमंत्री 27 जुलाई के बाद ही संसद में बयान दे सकेंगे, यदि वह चाहेंगे। हालांकि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से जुड़े मुद्दों पर हमारी सेना का शीर्ष नेतृत्व और विदेश मंत्रालय कई बार स्पष्टीकरण दे चुके हैं, लेकिन विपक्ष के सवाल और संदेह यथावत हैं। वे प्रधानमंत्री का जवाब सुनना चाहते हैं। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, क्योंकि प्रधानमंत्री संसद के प्रति जवाबदेह हैं। बिहार में चुनाव आयोग द्वारा ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ के अभियान पर भी विपक्ष सशंकित है कि लाखों लोग मताधिकार से वंचित किए जा सकते हैं। यह घोर असंवैधानिक होगा। बेहद अहम सवाल है कि देश के करीब 44 लाख करोड़ रुपए सरकार आधार कार्ड, मनरेगा कार्ड के जरिए लोगों में बांटती है और चुनाव आयोग उसे वैध दस्तावेज मानने को तैयार नहीं। आखिर कौन है चुनाव आयोग? क्या वह देश की संवैधानिक व्यवस्थाओं से भी ऊपर है? कई और मुद्दे हैं, जिन पर विपक्ष सवालों की मूसलाधार करने के मूड में है। संसद की कार्यवाही का दायित्व दोनों पक्षों पर है। अकेली सरकार भी सदन नहीं चला सकती। सांसद इस बिंदु पर भी सोचें कि पहली लोकसभा के दौरान साल में 135 दिन तक संसद की कार्यवाही चलती थी, लेकिन अब सिकुड़ कर औसतन 55 दिन रह गई है।