-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
चमत्कारों के नाम पर अध्यात्म परोसने वालों की भीड तेजी से बढती जा रही है। समस्याओं के समाधान, परेशानियों से निजात, कठिनाइयों का समापन, सुख की लालसा, सम्पन्नता का बाहुल्य, संतान की उत्पत्ति, सम्मान की प्राप्ति जैसे दावे करने वाले श्रध्दा के नाम पर अंधविश्वास परोस रहे हैं। कहीं चमत्कारिक दरवार लगाये जा रहे हैं तो कहीं टोटकों से ग्रह-दशा बदली जा रही है। कहीं स्वयंभू परमात्मा होने का दावा किया जा रहा है तो कहीं पैत्रिक विरासत के आधार पर स्वयं को सिध्द बताया जा रहा हैं। कहीं कथाओं के नाम पर मनगढन्त साहित्य की प्रमाणिकता के ढोल पीटे जा रहे हैं तो कहीं पुरातन घटनाओं की विकृत परिभाषायें की जा रहीं हैं। कोई फिल्मी संगीत पर धार्मिक पात्रों को जीवित कर रहा है तो कोई कानफोडू शोर में शान्ति के प्रयोग दिखा रहा है। दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से जूझ रहे लोगों को तिनके में भी सहारा दिखाई देने लगता है। आधुनिकता दौर में विलासता बटोरने वाले स्वयं अपने लिये नित नई परेशानियां पैदा कर रहे हैं। विज्ञापनों के माध्यम से घरों में घुसपैठ करने वाली सामग्रियों के प्रति बढता आकर्षण, दूसरों के साथ सम्पन्नता की प्रतिस्पर्धा और सुख की तलाश में हो रही भटकन से जहां भौतिक अभाव दिखाई देने लगता है वहीं जहर बनते जा रहे भोजन और मानसिक प्रदूषण से दैहिक पीडा का नया अध्याय प्रारम्भ हो रहा है। मनमाने मानवीय आचरण से प्राकृतिक आपदाओं और आकस्मिक दुर्घटनाओं का बाहुल्य हो रहा है जिस लोग दैविक प्रकोप समझकर भाग्य को कोसने लगते हैं। वास्तविकता तो यह है कि लोगों को तत्काल समाधान, शीघ्रता से मनोकामना की पूर्ति और चुटकी बजाते ही अभीष्ठ की प्राप्ति कराने वाले की तलाश हमेशा रहती है। मेहनत, श्रम और पुरुषार्थ को तिलांजलि देने की आदत निरंतर बढती जा रही है। इसी का फायदा उठाकर धर्म, सम्प्रदाय और संगठन की आड में समाज को ठगने का सिलसिला तेजी से चल निकला है। इस हेतु अनगिनत पीआर एजेन्सीज़ सक्रिय है, जो अपने अनुबंध के आधार पर दूसरे पक्ष को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचाने का दावा करतीं है। उनका यह दावा पूरी तरह खोखला भी नहीं है। यह एजेन्सी•ा साइबर के विभिन्न प्लेटफाम्र्स, मीडिया के विभिन्न स्वरूपों और प्रायोजित योजनाओं का उपयोग करके लक्ष्य भेदन का प्रयास करतीं है। समाज के अन्तिम छोर पर रहने वाले व्यक्ति को रातों-रात ख्याति की ऊंचाइयों तक पहुंचाने में इन्हें महारत हासिल है। अनेक चर्चित संस्थाओं के प्रसारणों, प्रकाशनों तथा पोर्टल्स पर योजनाबध्द ढंग से मनोवैज्ञानिक मापदण्डों पर जांची-परखी सामग्री परोस कर परेशान लोगों की भीड को आकर्षित किया जाता है। वास्तविक अध्यात्म में प्रदर्शन, चमत्कार या बाजीगरी का कोई स्थान नहीं है। इतिहास गवाह है कि अनेक देव पुरुषों ने अपनी साधना की दम पर न केवल देश की अस्मिता बचाई बल्कि विभीषिकाओं तक को टाला है। चीन व्दारा किये गये आक्रमण के दौरान दतिया की पीताम्बरा पीठ के स्वामी जी ने मां ध्रूमावती देवी का आह्वान किया और बिना शर्त युध्द विराम करवा दिया। देश के सामने विकट परिस्थितियां पैदा होते ही देवराहा बाबा जी ने अनूठे प्रयोग किये और समस्या का समाधान किया। आक्रान्ताओं के उत्पात को स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने अनुष्ठान करके शान्त किया। विचारों क्रान्ति अभियान के माध्यम से पं. श्रीराम शर्मा जी ने अनूठी अलख जगाई। स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने सत्य को परिभाषित करते हुए मनमानी मान्यताओं को समाप्त किया। करपात्री जी महाराज, मेहर बाबा जी, बाबा मस्त नाथ जी, कृपालु जी महाराज, लाहडी महाशय, नीम करौली बाबा जी, आनन्द मूर्ति जी महाराज, योगानन्द जी महाराज, परमानन्द जी महाराज, फलाहारी बाबा जी, वृती बाबा जी, सत्यानन्द जी महाराज, सत्य सांई बाबा जी महाराज, महर्षि अरविन्द जी, स्वामी परमानन्द जी महाराज, रणछोड जी महाराज, सोह्म स्वामी जी महाराज जैसी महान आत्माओं ने अपनी मानवीय लीला को राष्ट्रकल्याण, समाजकल्याण और जनकल्याण के निमित्त समर्पित कर दिया था। वर्तमान में भी जगदगुरु शंकराचार्य जी महाराज, श्री रामभद्राचार्य जी महाराज, श्रीश्री रविशंकर जी महाराज, सद्गुरु जग्गी बासुदेव जी महाराज, स्वामी अडगडानन्द जी महाराज, स्वामी चिदानन्द मुनि जी महाराज, संत बालक योगेश्वर दास जी महाराज जैसी विलक्षण विभूतियां आज भी सामान्य ढंग से सनातन परम्पराओं की मर्यादाओं का पालन करते हुए सहजता से समाज की समस्याओं को दूर कर रहीं हैं। उनके पंडालों में चीख-चिल्लाहट, हायतोबा, चमत्कार या आडम्बर नहीं होता। ढकोसलों का बाजार गर्म नहीं होता। मनगढन्त घटनाओं के माध्यम से प्रचार नहीं होता। यही कारण है कि उनके विशालतम आयोजनों में भी हाथरस जैसी घटनायें नहीं घटती हैं। स्वाधीनता के बाद देश का सबसे बडा गैर सरकारी आयोजन सन् 1995 में आगरा के समीप आंवलखेडा गांव में अश्वमेध यज्ञ श्रंखला की प्रथम अर्धपूर्णाहुति हेतु किया गया था। तब मोबाइल का प्रचलन अधिक लोकप्रिय नहीं था। वाकी-टाकी पर ही व्यवस्थायें सम्हाली जातीं थीं। तब वहां पर 40 लाख से अधिक लोगों ने भागीदारी दर्ज की थी जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहाराव सहित देश-विदेश के अधिकांश जानेमाने लोग पहुंचे थे। कार्यक्रम के लिए आयोजकों ने एक वर्ष तक अपनी दम पर व्यवस्थायें जुटाईं थीं। समूचे आयोजन में एक भी दुर्घटना अस्तित्व में नहीं आयी थी। अनेक अवसरों पर देखने में आया है कि आयोजकों व्दारा अपनी क्षमताओं, व्यवस्थाओं और विशेषताओं का मूल्यांकन किये बिना ही भारी भरकम कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार कर ली जाती है। आमंत्रण का मनमाना वितरण किया जाता है। प्रचार में कोई कोर-कसर नहीं छोडी जाती है और जब कोई दु:खद घटना सामने आती है शासन-प्रशासन पर दायित्वों का छींका फोड दिया जाता है। ऐसे मेें विपक्षी दल सरकार को घेरने के लिए प्रलाप करने लगते हैं, तगडे मुआवजे की मांग करने लगते हैं और शुरू कर देते हैं वोट बैंक को बढाने हेतु असन्तोष फैले के प्रयास। ईमानदाराना बात तो यह है कि स्वयंभू भगवानों की भीड ने असली-नकली का भेद मिटाकर रख दिया है। प्रचार के माध्यमों से लोकप्रियता के ग्राफ पर तत्काल आमद दर्ज करने वालों ने सच्चे साधकों, तपस्वियों, सन्यासियों, संतों, साधुओं, वैरागियों, निर्मोहियों आदि को चमत्कारों, प्रदर्शनों और बाजीगरी के हथियारों से हराने का बीडा उठा लिया है। अब वास्तविक धर्म तक पहुचने के लिये सम्प्रदाय के बंधन से मुक्त गीता के उपदेशों को आत्मसात करने का समय आ गया है। चमत्कारों की मृगमारीचिका से दूर हटकर वास्तविक धर्म को पहचानना होगा और स्वीकारना होगा पुरुषार्थ के महात्व को तभी जीवन के सत्य तक पहुंचा जा सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।