ई पेपर
Monday, September 15, 2025
WhatsApp पर जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक
सब्सक्राइब करें
हमारी सेवाएं

संपादकीय: (मनसा देवी) कब तक श्रद्धालु यूं ही मरते रहेंगे?

-वेब वार्ता सम्पादकीय डेस्क-

भारत आस्था का देश है। यहां हर मोड़ पर एक मंदिर है, हर पहाड़ी पर एक तीर्थ, और हर जनमानस में एक देवी-देवता विराजते हैं। लेकिन एक सवाल अब चीख़-चीख़ कर खड़ा हो रहा है—क्या हमारे मंदिरों में श्रद्धा से ज्यादा अव्यवस्था और मौत का बोलबाला हो गया है?

हरिद्वार के मनसा देवी मंदिर में हुई भगदड़ और उसमें 8 लोगों की दर्दनाक मौत ने एक बार फिर वही डरावनी यादें ताज़ा कर दी हैं, जो साल दर साल दोहराई जाती रही हैं—भीड़भाड़, संकरे रास्ते, पुलिस की लापरवाही, और फिर लाशें।

क्या हम किसी सबक की प्रतीक्षा कर रहे हैं जो कभी नहीं आता?

प्रशासनिक लापरवाही या नियति का खेल?

हर बार हादसे के बाद वही परिपाटी – मुआवज़ा, जांच के आदेश और संवेदना भरे ट्वीट्स। लेकिन कोई नहीं पूछता कि ये हादसे होते ही क्यों हैं?

मनसा देवी मंदिर कोई नया तीर्थ नहीं है। यह भारत के 51 शक्तिपीठों में शामिल है। वर्षों से यहां भीड़ उमड़ती रही है। फिर क्यों भीड़ नियंत्रण, आपात निकासी व्यवस्था, वॉलंटियर्स की टीम या सीसीटीवी निगरानी जैसे बुनियादी इंतजाम नहीं किए गए?

हाथरस के भोले बाबा सत्संग की भगदड़ में 121 मौतों के ज़ख्म अभी भरे भी नहीं थे। तब भी सवाल उठे थे, जांच बैठी थी, लेकिन क्या कुछ बदला?

श्रद्धा बनाम सुरक्षा

मंदिरों की व्यवस्थाएं आस्था की भीड़ संभालने के लिए तैयार नहीं हैं। श्रद्धालुओं के लिए दर्शन एक पवित्र अनुभव है, लेकिन वह भी तभी जब ज़िंदा लौट सकें।

सवाल यह है कि क्या सरकार, मंदिर ट्रस्ट और स्थानीय प्रशासन को अब भी भीड़ प्रबंधन के ‘आधुनिक’ उपायों को लागू करने की जरूरत महसूस नहीं होती?

हर वर्ष करोड़ों का चढ़ावा इन मंदिरों में आता है। उस पैसे का कितना हिस्सा श्रद्धालुओं की सुरक्षा पर खर्च होता है? क्या एक कॉरिडोर या वैकल्पिक निकासी रास्ता बनाना इतना असंभव है?

श्रद्धालुओं की भी जिम्मेदारी

श्रद्धालु भीड़ देखकर भी धक्का-मुक्की करने लगते हैं। बच्चों को कंधे पर उठाकर भीड़ में उतर जाते हैं। अफवाहों पर ध्यान देते हैं, और अव्यवस्था फैलाने में अनजाने में हिस्सा बन जाते हैं।

आस्था का अर्थ यह नहीं कि विवेक को ताला लगा दिया जाए। भक्ति और विवेक साथ चलें तभी ईश्वर की कृपा मिल सकती है।

हम कब सीखेंगे?

मांडहर देवी से लेकर सबरीमाला, रतनगढ़ माता से लेकर वैष्णो देवी तक—हर भगदड़ के बाद कुछ दिन शोक और फिर सब सामान्य।

हम आज पूछना चाहते हैं:

  • क्यों मंदिरों को डिजास्टर-प्रूफ नहीं किया जाता?

  • क्या भीड़ नियंत्रण सिर्फ प्रशासन की जिम्मेदारी है?

  • क्या मंदिर ट्रस्ट केवल चढ़ावे गिनने तक सीमित हैं?

  • क्यों हर हादसे की रिपोर्ट गोपनीय रखी जाती है?

निष्कर्ष: मौत नहीं, मुक्ति चाहिए

ईश्वर तक पहुंचने का रास्ता सुगम, सुरक्षित और श्रद्धा से भरा होना चाहिए, न कि वह रास्ता जहां परिजनों की लाशें उठानी पड़ें। यह सरकार, प्रशासन और हम सबकी साझा जिम्मेदारी है कि मंदिरों को मौत का नहीं, मोक्ष का स्थान बनाएं।

श्रद्धा के रास्ते में मृत्यु की लाठी नहीं, व्यवस्था का सहारा चाहिए।


(यह संपादकीय जनहित में प्रकाशित किया गया है। कृपया अपने सुझाव, विचार और अनुभव हमारे संपादकीय विभाग को लिखें।)

Author

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

वेब वार्ता समाचार एजेंसी

संपादक: सईद अहमद

पता: 111, First Floor, Pratap Bhawan, BSZ Marg, ITO, New Delhi-110096

फोन नंबर: 8587018587

ईमेल: webvarta@gmail.com

सबसे लोकप्रिय

खबरें और भी