Saturday, July 26, 2025
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सीमा पर बारूद, भीतर असुरक्षा: थाईलैंड-कंबोडिया संघर्ष और मानवता की हार

लेखक: संपादकीय विभाग, वेब वार्ता

“जहाँ कूटनीति असफल होती है, वहाँ तोपें बोलने लगती हैं।”
थाईलैंड और कंबोडिया के बीच हालिया सीमा संघर्ष एक बार फिर इस कटु सत्य को उजागर करता है। बीते दिनों कंबोडिया की ओर से दागे गए रॉकेटों ने थाईलैंड के सीमावर्ती गांवों को निशाना बनाया, जिसमें कम से कम 12 लोगों की जान चली गई — इनमें मासूम बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। यह केवल एक सैन्य घटना नहीं, बल्कि मानवीय त्रासदी है, जिसमें न केवल गोलियां चलीं बल्कि आम जनजीवन चिथड़े-चिथड़े हो गया।

इतिहास की धधकती राख पर बार-बार भड़कता संघर्ष

थाईलैंड और कंबोडिया के बीच सीमा विवाद कोई नया नहीं है। दोनों देशों के बीच 800 किलोमीटर लंबी सीमा का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दावों में उलझा हुआ है। खासकर प्रीह विहार मंदिर क्षेत्र — जो यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है — पर दोनों पक्षों के दावे पिछले कई दशकों से तनाव का कारण बनते आए हैं। अंतरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा 1962 में यह मंदिर कंबोडिया को सौंपा गया था, लेकिन उसके आस-पास की भूमि पर अधिकार को लेकर विवाद बना रहा। इसी विवाद की राख अब फिर से धधक उठी है।

इस बार दांव पर है नागरिक जीवन

जहाँ पहले की झड़पें सीमित दायरे तक थीं, वहीं इस बार संघर्ष ने गांवों और रिहायशी इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया है। रॉकेटों की चपेट में आने से मरने वाले अधिकांश लोग गैर-सैनिक हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि जिन लोगों का संघर्ष से कोई लेना-देना नहीं, वे इसकी सबसे बड़ी कीमत चुका रहे हैं?
स्थानीय निवासियों का सामूहिक पलायन, घरों का जलना, स्कूलों का बंद होना, और बच्चों का भयभीत चेहरों के साथ माता-पिता की ऊंगलियों को थामे हुए भागना — ये दृश्य किसी युद्धग्रस्त देश के नहीं, बल्कि शांतिपूर्ण पड़ोसियों के हैं।

सैनिकों के साए में सुलगते रिश्ते

यह घटना न केवल थाईलैंड और कंबोडिया के राजनयिक रिश्तों पर ग्रहण डालती है, बल्कि ASEAN जैसे क्षेत्रीय मंचों की प्रभावशीलता पर भी सवाल उठाती है। क्या ऐसे संगठनों की भूमिका केवल आपातकालीन बयान जारी करने तक सीमित रह गई है? क्या कूटनीति केवल तब सक्रिय होती है जब लाशें गिर चुकी हों?

वैश्विक तटस्थता बनाम सक्रिय भूमिका

संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इस घटना पर “गंभीर चिंता” ज़रूर व्यक्त की है, लेकिन क्या सिर्फ चिंता जताना काफी है? अंतरराष्ट्रीय संस्थानों की निष्क्रियता, खासकर जब एक क्षेत्रीय संघर्ष व्यापक मानवीय संकट में बदलता जा रहा हो, केवल दिखावटी सहानुभूति बनकर रह जाती है।
वर्तमान वैश्विक व्यवस्था को सक्रिय शांति पहल की ज़रूरत है — ऐसे समय में जब स्थानीय संघर्षों के वैश्विक नतीजे हो सकते हैं, हर देरी एक नई त्रासदी को जन्म देती है।

समाधान का रास्ता: बंदूक नहीं, बातचीत

जब दो पड़ोसी आपस में उलझते हैं, तो केवल सीमा नहीं, भरोसे की रेखा भी टूटती है। यह समझना ज़रूरी है कि प्रीह विहार जैसे ऐतिहासिक स्थलों को हथियार नहीं बनाया जा सकता।
यह विवाद कूटनीतिक माध्यमों से, अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के ज़रिए हल किया जाना चाहिए। संयुक्त निगरानी तंत्र, सीमांकन आयोग और सांस्कृतिक संवाद जैसे विकल्प अभी भी खुले हैं — बशर्ते दोनों देश इच्छाशक्ति दिखाएं।

संपादकीय दृष्टिकोण

इस घटना ने फिर से यह दिखा दिया है कि सीमाएं केवल भूगोल से नहीं बनतीं, वे इतिहास, पहचान और भावना से भी जुड़ी होती हैं। लेकिन जब राजनीति इन भावनाओं का दोहन करती है, तो केवल नुकसान होता है — जान, भरोसा और भविष्य — तीनों का।
थाईलैंड और कंबोडिया को तुरंत संघर्षविराम की घोषणा करनी चाहिए, नागरिक सुरक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए और एक स्वतंत्र मध्यस्थता के माध्यम से स्थायी समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए।

क्योंकि युद्ध अगर किसी चीज़ को नहीं जीतता, तो वह है — शांति


(यह लेख संपादकीय दृष्टिकोण को दर्शाता है, न कि किसी पक्ष की आधिकारिक स्थिति को।)

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