-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
सनातन की मान्यताओं, आदर्शों और संस्कारों को समाप्त करने के लिए बहुमुखी आक्रमण हो रहे हैं। सत्ता से लेकर कथित ठेकेदारों तक ने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु हमेशा ही वैदिक परम्पराओं को नस्तनाबूत करने के प्रयास किये हैं परन्तु स्वाधीनता के बाद से तो इन प्रयासों में दूरदर्शितापूर्ण षडयंत्रों की धार भी देखी जाने लगी। कभी अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने के नाम पर सनातन को कुचलने की कोशिशें हुईं तो कभी कानूनों के निर्माण से अधिकारों का हनन किया गया। इतिहास गवाह है कि सत्ताधारी दलों ने धर्म निरपेक्षता के नाम पर केवल और केवल सनातन को ही क्षति पहुंचाई है। केवल मंदिरों, तीर्थों और आस्था के केन्द्रों पर ही शिकंजा कसा है। केवल वैदिक मान्यताओं को ही अंधविश्वास की परिभाषाओं में जकडा है।
आदिगुरु शंकराचार्य के द्वारा सनातन की पुनर्स्थापना के उपरान्त स्थापित की गई चार पीठों की मर्यादाओं को अस्तित्वहीन किया है। चार पीठों हेतु चार आचार्यों वैदिक व्यवस्था को न्यायालय के कटघरे में खडा करके एक आचार्य को सन् 1982 में दो पीठों पर स्थापित कर दिया गया यानी चार पीठों पर केवल तीन शंकराचार्य पदस्थ किये गये। कानून के डंडे ने वैदिक व्यवस्था को सूली पर चढा दिया। जगतगुरु की उपाधि से विभूषित सनातन के सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित एक शंकराचार्य को सन् 2004 में सलाखों के पीछे पहुंचाया गया।
बहुसंख्यक होने का दण्ड देते हुए आपातकाल में केवल और केवल हिन्दुओं की ही जबरन नसबंदी करके तत्कालीन सरकार ने अपनी तानाशाही का परमच फहराया। वर्तमान में तेजी से बढ रहा जनसंख्या असंतुलन उसी कुटिल तानाशाही की देन है जिसका बीजारोपण इमरजेन्सी के दौरान किया गया था। श्रद्धा के केन्द्रों पर समर्पित होने वाली दानराशि पर भी सरकारी कब्जा करने की कानूनी व्यवस्था कर दी गई। सनातनती तीर्थों को संचालित करने हेतु मनमाने बोर्ड, समितियां और निकाय बना दिये गये। इन संस्थाओं में भी सत्ताधारियों ने अपने पसन्दीदा लोगों को बैठाकर स्वार्थ सिद्धि की नूतन व्याख्यायें करना शुरू कर दी है।
देश के चारों दिशाओं में स्थापित चार धामों की मान्यताओं को अस्तित्वहीन करते हुए श्रीबद्रीनाथ धाम, श्रीरामेश्वरम् धाम, श्रीद्वारिका धाम और श्रीजगन्नाथ धाम को हासिये के बाहर पहुंचाने का काम करते हुए उत्तराखण्ड सरकार ने श्रीयमुनोत्री यानी पवित्र यमुना नदी के उदगम, श्रीगंगोत्री यानी पवित्र गंगा नदी के उदगम, श्रीकेदारनाथ यानी ज्योतिर्लिंग तथा श्रीबद्रीनाथ धाम यानी एक धाम को चार धाम कहकर न केवल प्रचारित किया बल्कि सनातन की वैदिक व्यवस्था को ही विकृत करने की सरेआम कोशिश निरंतर की जा रही है। इस कोशिश में केन्द्र सरकार ने भी खुलकर साथ दिया। वास्तविक चारों धामों की मान्यतायें केवल श्रीबद्रीनाथ धाम सहित एक ज्योतिर्लिंग, दो पवित्र नदियों के उदगम तक सीमित करके भ्रम की स्थिति निर्मित कर दी गई।
इसी तरह श्रीअमरनाथ, सप्त पुरियों, माता वैष्णव देवी सहित 51 शक्तिपीठों के अलावा अन्य सभी स्थानों पर मनमानी प्रबंधकारिणी संस्थायें स्थापित करके वहां की वैदिक परम्पराओं को विकृत करने के निरंतर प्रयास हो रहे हैं। आस्था के केन्द्रों को पर्यटन स्थलों के रूप में विकसित करने के सरकारी प्रयासों को विकास के नये सोपान के रूप परिभाषित किया जा रहा है जबकि वास्तव में वहां की संस्कृति, संस्कार और संरचनायें पूरी तरह से अस्तित्वहीन होती जा रहीं हैं। विकास के नाम पर मनमानी परियोजनाओं को जबरन लागू करने से जहां एक ओर वैदिक सनातनी शक्ति स्थलों की तपीय ऊर्जा समाप्त हो रही है वहीं पवित्र भूमि पर आधुनिक सुख-सुविधाओं का बाहुल्य होते ही निधेषात्मक कृत्यों की बाढ सी आ गई है।
मांसाहार और शराब की कौन कहे, लिव एण्ड रिलेशनशिप जैसे मापदण्ड कानून के संरक्षण में खुलेआम फलफूल रहे हैं। साधना के स्थलों को पिकनिक स्पाट बनाया जा रहा है। वहीं सरकारी अमला कागजी घोडों की दौड में उपलब्धियों के नित नये कीर्तिमान गढने में लगा है और उन मनमाने आंकडों की दम पर स्वयं की पीठ थपथपाने वालों की संख्या में भी आश्चर्यजनक वृद्धि हो रही है। केवल उत्तराखण्ड को ही ले लें तो वहां पर होने वाली भूस्खलन की घटनाओं में निरंतर हो रहे इजाफे ने वहां के पहाडों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित करने शुरू कर दिये हैं। भारी भरकम निर्माण कार्यों की धमक ने जहां पर्वत श्रंखलाओं को अन्दर से हिल दिया है वहीं ड्रिल, खनन और विस्तारीकरण से उसकी आन्तरिक पकड कमजोर होती जा रही है। ऐसे में पहाडों को कृत्रिम मजबूती देने के नाम पर करोडों की धनराशि व्यय करके सीमेन्ट पोतने, जाली लगाने, नटबोल्ट कसने जैसे कार्य किये जा रहे हैं जबकि उत्तराखण्ड के पहाडों पर किये गये अनेक शोधों में वहां की पर्वत श्रंखलाओं के साथ छेडछाड करने की घटनाओं को घातक ही नहीं बल्कि आत्मघाती के रूप में निरूपित किया गया है।
कैरीडोर के नाम पर पुरातन स्वरूप समाप्त होने लगा है, उन्मुक्त धवल धारा को कैद किया जा रहा है, मंत्रों से लेकर कर्मकाण्ड तक के पराविज्ञान के प्रयोगों हेतु निर्धारित स्थलों को सीमित किया जा रहा है, पुरोहित परम्परा को संकुचित करने की योजना सामने आ रही है। देश के ईमानदार करदाताओं की खून-पसीने की कमाई को आस्था के संरक्षण की आड में लालफीताशाही द्वारा स्वार्थ की वेदी पर निछावर किया जा रहा है। कार्यपालिका के द्वारा सनातन के विरोध में किये जा रहे मीठे जहर के प्रयोगों को विधायिका द्वारा आंख बंद करके स्वीकारने की स्थिति से उसकी मानसिक क्षमताओं पर भी प्रश्नचिन्ह अंकित हो रहे है। कुल मिलाकर यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि भव्यता के दिखावे तले दिव्यता का किस्तों में कत्ल किया जा रहा है। दूसरी ओर स्वयं की दुकान चलाने के लिए सनातन का ढिंढोरा पीटने वालों की भी कमी नहीं है।
स्वयंभू ठेकेदारों द्वारा कभी कट्टरपंथियों का भय दिखाकर एकता का नारा बुलंद किया जाता है तो कभी जातिगत खाई को पाटने की मुहिम चलाई की घोषणा होती है। कभी भीड के साथ लम्बे रास्ते तय करके जन जागरण की अलख जगाने का ढिंढोरा पीटा जाता है तो तभी आम आवास की रोजमर्रा वाली जिंदगी में खलल डालते हुए अव्यवस्थायें फैलाई जाती हैं। बत्ती, हूटर और गार्ड्स का भौंकाल दिखाकर कानून तोडने वाले भीड की अगवाई और सरकार पर पकड का दिखावा करके स्वयं को एकमात्र धर्मरक्षक घोषित करने में लगे हैं। ऐसे लोगों के अनर्गल वक्तव्यों को पीआर एजेन्सीज़ की सहायता से चर्चा में लाया जाता है ताकि ठेकेदारों की लोकप्रियता को राष्ट्रीय परिधि से निकाल कर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाई जा सके। ऐसे में आम आवाम के समक्ष राष्ट्रधर्म के साथ साथ स्वयं की आस्था को भी संरक्षित रखने की कडी चुनौती है जिसके लिए उसे स्वंय ही विश्लेषण, चिन्तन और समीक्षा के आइने में आत्मनिरीक्षण करना होगा तभी सनातन की निरंतरता स्थापित रह सकेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।