-राज कुमार सिंह-
चुनावी राजनीति का खेल भी अजीब है। दो दावेदारों के बीच सत्ता की जंग में हार-जीत का फैसला कई बार तीसरे खिलाड़ी के खेल पर निर्भर करता है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी वैसा ही समीकरण बनता दिख रहा है। दिल्ली अधूरा राज्य है, जिसकी सत्ता के कुछ निर्णायक सूत्र उपराज्यपाल के जरिये केंद्र सरकार के हाथ में रहते हैं। फिर भी अधूरे राज्य की सत्ता की जंग पूरे जोर-शोर से लड़ी जा रही है। इस जंग में चुनावी वादों से लेकर दलगत और निजी आरोप-प्रत्यारोप तक के इस्तेमाल से कोई परहेज नहीं दिख रहा। आप दस साल से दिल्ली की सत्ता पर काबिज है तो 70 सदस्यों वाली विधानसभा में मात्र आठ सीटों के साथ भाजपा मुख्य विपक्षी दल है। सत्ता की जंग इन दोनों के बीच ही मानी जा रही है, फिर भी कांग्रेस चुनावी जंग को त्रिकोणीय बनाती दिख रही है।
पहले जनसंघ और फिर भाजपा ही दिल्ली की राजनीति में कांग्रेस के अलावा दूसरी बड़ी खिलाड़ी रही। परिदृश्य बदला 2013 के विधानसभा चुनाव में। तत्कालीन संप्रग सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनजर जन लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के चर्चित आंदोलन के बाद उन्हीं के कुछ शिष्यों द्वारा अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में बनाई गई आम आदमी पार्टी यानी आप पहली बार विधानसभा चुनाव लड़ी और 15 साल से सत्तारूढ़ कांग्रेस को तीसरे नंबर पर धकेल कर 28 सीटों के साथ दूसरा बड़ा दल बन गई। सबसे बड़ा दल भाजपा थी 31 सीटों के साथ, पर उसे सत्ता से रोकने की खातिर कांग्रेस ने उसी आप की सरकार अपने समर्थन से बनवा दी, जिसने उसे अर्श से फर्श पर पटक दिया था। क्या कांग्रेस का वह फैसला दिल्ली में आत्मघाती साबित हुआ? इस सवाल के जवाब में उसकी संभावित चुनावी भूमिका का संकेत भी छिपा है। इसे समझने के लिए 2013 और उसके बाद के विधानसभा चुनावों में इन तीनों राजनीतिक दलों को मिले मतों का प्रतिशत जानना और उसे समझना जरूरी है।
अपने पहले ही विधानसभा चुनाव में 2013 में जब आप ने 29 प्रतिशत मत हासिल करते हुए 28 सीटें जीती थीं, तब भी कांग्रेस को 24.5 प्रतिशत मत मिले थे। हालांकि कांग्रेस मात्र आठ सीटें जीत पाई थी, लेकिन आप द्वारा सेंधमारी के बावजूद उसके पास सम्मानजनक मत प्रतिशत था। उसी चुनाव में 33.1 प्रतिशत मत लेकर भाजपा 31 सीटों के साथ विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी। दिल्ली की राजनीति में बड़ा उलटफेर उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में हुआ, जिनमें कांग्रेस का मत प्रतिशत लगातार गिरता गया और उसके साथ ही आप का ग्राफ चढ़ता गया।
यदि फरवरी, 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत 24.5 से गिर कर 9.7 प्रतिशत रह गया तो उसे 2013 में अपने समर्थन से आप की सरकार बनवाने के अलावा किस राजनीतिक भूल का परिणाम माना जा सकता है? 2015 के विधानसभा चुनाव में आप का मत प्रतिशत 29 से छलांग लगाकर 54.6 प्रतिशत पर पहुंच गया। दरअसल, आप ने कांग्रेस से उसका परंपरागत वोट बैंक गरीब, दलित और अल्पसंख्यक छीनते हुए भाजपा के मिडिल क्लास वोट बैंक में भी सेंध लगाई। भाजपा का मत प्रतिशत 33.1 से गिर 32.2 प्रतिशत पर आ गया। इसका अंतिम चुनावी परिणाम यह निकला कि 28 सीटों वाली आप ने 67 सीटों के साथ इतिहास रच दिया तो 31 सीटों के साथ पिछली विधानसभा में सबसे बड़ा दल रही भाजपा तीन सीटों पर सिमट गई, जबकि कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला।
2020 के चुनाव में भी आप की कमोबेश वैसी ही चुनावी सफलता ने उसके पंखों को इतनी ऊंची उड़ान दे दी कि वह 2022 में पंजाब में भी सत्तारूढ़ हो गई तथा गुजरात और गोवा में मिले मत प्रतिशत और सीटों के बल पर राष्ट्रीय दल का दर्जा पा गई। 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा द्वारा अपना मत प्रतिशत 32.2 प्रतिशत से बढ़ा कर 38.5 तक ले जाने के बावजूद आप का 62 सीटें जीत जाना चौंकाने वाला रहा। बेशक सीटें भाजपा की भी तीन से बढ़ कर आठ हो गईं, पर कांग्रेस का मत प्रतिशत और भी आधा रह जाने के चलते आप अपने मत प्रतिशत में एक प्रतिशत की गिरावट के बावजूद लगातार दूसरी बार प्रचंड बहुमत पाने में सफल रही। कांग्रेस का मत प्रतिशत 9.7 से गिर कर 4.3 रह गया, जबकि आप का मत प्रतिशत 54.6 से गिर कर 53.6 प्रतिशत हो गया। इसलिए यदि पांच फरवरी को होने जा रहे चुनाव में भाजपा पिछली बार की तरह इस बार भी अपना मत प्रतिशत चार या पांच प्रतिशत बढ़ाने में कामयाब हो जाती है, तब भी वह आप को बहुमत पाने से नहीं रोक पाएगी, क्योंकि इसके बावजूद आप 47-48 प्रतिशत मतों के साथ भाजपा से आगे रहेगी।
ऐसे में आप का विजय रथ दिल्ली में तभी रुक सकता है, जब कांग्रेस अपना मत प्रतिशत 4.3 से बढ़ा कर तीन गुणा तक ले जाए। अगर कांग्रेस अपना खोया हुआ जनाधार वापस पा ले तो आप का मत प्रतिशत गिर कर भाजपा के संभावित मत प्रतिशत से भी नीचे जा सकता है और दिल्ली में सत्ता की बाजी पलट सकती है। इस तरह त्रिकोणीय मुकाबले में सबसे कमजोर होते हुए भी सत्ता की जंग में निर्णायक भूमिका कांग्रेस निभा सकती है। अगर 27 साल बाद दिल्ली में सत्ता का कमल खिला तो उसमें अप्रत्यक्ष भूमिका हाथ की भी रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)