Saturday, July 26, 2025
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चीन बना रहा है दुनिया का सबसे बड़ा बांध, भारत-बांग्लादेश की चिंता बढ़ी

भारत-बांग्लादेश को जल संकट का खतरा, अरुणाचल से उठी ‘वॉटर बम’ की चेतावनी

📍 यारलुंग सांगपो नदी पर 1.44 लाख करोड़ की परियोजना
📍 ब्रह्मपुत्र के प्रवाह पर पड़ सकता है सीधा असर
📍 भारत ने जताई आपत्ति, विशेषज्ञ बोले – “पानी को हथियार बना सकता है चीन”

नई दिल्ली/बीजिंग, (वेब वार्ता)। चीन ने तिब्बत में यारलुंग सांगपो नदी पर दुनिया के सबसे बड़े हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट की आधारशिला रख दी है, जिससे भारत और बांग्लादेश की चिंताएं गहराने लगी हैं। यह परियोजना तिब्बती पठार से निकलने वाली उसी नदी पर बनाई जा रही है, जो भारत में सियांग और ब्रह्मपुत्र कहलाती है, और आगे चलकर बांग्लादेश में जमुना बन जाती है।

चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग ने इस मेगा प्रोजेक्ट की शुरुआत के मौके पर आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता की। चीन सरकार के अनुसार, यह परियोजना पर्यावरण संतुलन को ध्यान में रखते हुए तैयार की जा रही है और इसका उद्देश्य हरित ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देना है। हालांकि भारत सहित पड़ोसी देशों ने इस परियोजना को लेकर गंभीर आपत्तियाँ जताई हैं।

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ये बांध यारलुंग सांगपो घाटी में बनाया जा रहा है, जिसे दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे गहरी घाटी माना जाता है

कितनी बड़ी है यह परियोजना?

मोटुओ हाइड्रोपावर स्टेशन‘ नामक यह परियोजना करीब 1.2 ट्रिलियन युआन (लगभग 1.44 लाख करोड़ रुपये) की लागत से तैयार की जा रही है। इसके पूरा होने पर यह थ्री गॉर्जेस डैम को पीछे छोड़ते हुए दुनिया का सबसे बड़ा जलविद्युत परियोजना बन जाएगा। रिपोर्टों के अनुसार, इसकी ऊर्जा उत्पादन क्षमता थ्री गॉर्जेस डैम से तीन गुना अधिक होगी। इस परियोजना में पांच कासकेड पावर स्टेशन बनाए जा रहे हैं, जिनसे स्थानीय तथा राष्ट्रीय ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति की जाएगी।

चीन का लक्ष्य है कि वह वर्ष 2060 तक कार्बन न्यूट्रल बन जाए और यह परियोजना उसी दिशा में एक अहम कदम मानी जा रही है।

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दुनिया में अब तक का सबसे बड़ा हाइड्रोपावर बांध चीन का थ्री गॉर्जेस डैम है

भारत और बांग्लादेश की चिंताएं

भारत सरकार ने इस परियोजना के कारण नदी के प्राकृतिक प्रवाह में हस्तक्षेप और डाउनस्ट्रीम देशों पर पड़ने वाले प्रभावों पर चिंता व्यक्त की है। जनवरी 2025 में विदेश मंत्रालय ने चीन से पारदर्शिता बरतने और निचले हिस्सों में रहने वाले लोगों के हितों की रक्षा करने का आग्रह किया था।

अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने इस बांध को “वॉटर बम” करार देते हुए कहा कि इससे भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में अचानक बाढ़ आ सकती है और विशेष रूप से आदि जनजातियों की आजीविका को खतरा हो सकता है। उनका कहना है कि अगर चीन ने पानी रोककर एकसाथ छोड़ दिया तो सियांग घाटी पूरी तरह तबाह हो सकती है।

वहीं, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने इस परियोजना को लेकर संतुलित रुख अपनाते हुए कहा है कि ब्रह्मपुत्र का केवल 30–35 प्रतिशत जल प्रवाह चीन से आता है, जबकि शेष भारत में होता है।

बांग्लादेश ने भी इस परियोजना पर चिंता जताते हुए चीन से बांध से संबंधित तकनीकी जानकारी साझा करने की मांग की है।

पर्यावरणीय और भौगोलिक जोखिम

विशेषज्ञों का मानना है कि यह क्षेत्र भूकंप संभावित ज़ोन में आता है। इतना विशाल बांध भविष्य में भूस्खलन, बाढ़ या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं को और खतरनाक बना सकता है। इसके अलावा, तिब्बत की घाटियाँ, जो जैव विविधता से समृद्ध हैं, जलमग्न होने का खतरा झेल रही हैं।

रणनीतिक दृष्टिकोण

चीन द्वारा अंतरराष्ट्रीय नदियों के जल प्रवाह को नियंत्रित करने की यह रणनीति सिर्फ एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है, बल्कि इससे भारत की जल-आधारित कृषि, सुरक्षा और ऊर्जा नीति पर प्रभाव पड़ सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि चीन आवश्यकता पड़ने पर जल को रणनीतिक हथियार के रूप में भी प्रयोग कर सकता है।

ऑस्ट्रेलिया स्थित लोवी इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक़, तिब्बत की नदियों पर चीन का नियंत्रण उसे भारत की अर्थव्यवस्था और आंतरिक स्थिरता को प्रभावित करने की शक्ति दे सकता है।

तिब्बत में असंतोष

चीन की ‘पश्चिम से बिजली, पूरब को’ नीति के तहत तिब्बती क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बांध बनाए जा रहे हैं। हालांकि सरकारी मीडिया इसे विकास की दिशा में बड़ा कदम बताता है, मगर स्थानीय तिब्बती समुदाय इसे संस्कृति और आजीविका पर हमला मानते हैं। खबरों के मुताबिक, पिछले वर्ष इसी प्रकार की एक परियोजना के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले सैकड़ों तिब्बतियों को गिरफ्तार किया गया था।

चीन द्वारा यारलुंग सांगपो नदी पर बनाया जा रहा यह बांध ऊर्जा सुरक्षा के साथ-साथ कूटनीतिक और पर्यावरणीय संतुलन को प्रभावित करने वाला कारक बनकर उभर सकता है। भारत और बांग्लादेश के लिए यह केवल जल संकट का नहीं, बल्कि भविष्य की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का भी विषय बन चुका है। ऐसे में आवश्यकता है कि दक्षिण एशियाई देश एकजुट होकर पारदर्शिता, सहयोग और साझा जल-सुरक्षा नीति की दिशा में आगे बढ़ें।

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