
-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
जीवन में आस्था का महात्व सर्वोच्च है। आस्था का सामान्य अर्थ विश्वास की चरम सीमा पर स्थापित हो जाना है। यही विश्वास जीव के जन्म लेते ही उसे अपनी मां के प्रति, फिर परिवार के प्रति और फिर आसपास के लोगों के प्रति जागृत करता है। यहीं से संस्कारों का जन्म होता है, आदतें पडतीं हैं और स्वभाव बन जाता है। परिवार में होने वाले क्रियाकलाप दिनचर्या मे ढल जाते हैं। यहीं से प्रारम्भ होती है परमशक्ति के प्रति एक विशेष प्रकार की निष्ठा। आराधना, उपासना और साधना का क्रम धीरे-धीरे आगे बढते हुए पूजा पध्दति का रूप ले लेता है। व्यक्तिगत अनुभूतियों में फलित होने वाली क्रियाओं को पूर्ण सत्य मानने वाले उन्हीं का उपदेश जनकल्याणार्थ करने लगते हैं। यह क्रम अनादिकाल से चला आ रहा है।
वर्तमान समय में यही व्यक्तिगत अनुभूतियों का परिणाम और निजी पूजा पध्दति दूसरों पर थोपने का क्रम चल निकला है। एक ही तरह के सिध्दान्तों को अंगीकार करने वाले भी अपनी-अपनी क्रियाओं को अलग-अलग ढंग से परोसने लगे हैं जिसके कारण विभेद की स्थिति ने निर्मित हो रही है और एक ही सिध्दान्त के मानने वालों के मध्य भी तनाव पैदा होने लगा है। यह स्थिति वैदिक, तांत्रिक, अघोर आदि पध्दतियों के बीच भी है तो वहीं शिया, सुन्नी, बहावी जैसे वर्गो को निर्मित कर रहे हैं। ऐसा ही कैथोलिक-पोटेस्टेन्ट, श्वेतांबर-पीतांबर तथा सगुण-निर्गुण के मध्य भी देखने को मिलता है। दूसरी ओर विपरीत सिध्दान्तों को स्वीकारने वाले भी कठोरता के साथ लोगों पर स्वयं के क्रियाकलापों को मानने का दबाव बना रहे हैं। धनबल, जनबल और राजबल के आधार पर जुल्म की नई दास्तानें लिखीं जा रहीं हैं। कहीं लालच का रसगुल्ला खिलाने वाले पश्चिमी लोग विश्व के सरल लोगों को बरगलाने में लगे हैं तो कहीं बलपूर्वक स्वयं की परम्पराओं को मनवाने का क्रम चल रहा है।
अतीत में जानबूझकर लागू किये गये कानून वर्तमान में अपने गुल खिला रहे हैं। समूची दुनिया में मानवता के आधार पर भावनात्मक आहुतियां देने वाले आज जुल्म का शिकार हो रहे हैं। यह जुल्म जहां दो विपरीत सिध्दान्तों को मानने वालों के मध्य हो रहा है तो वहीं एक ही सिध्दान्त की अनेक व्याख्यायें होने से पृथक-पृथक कृत्य अपनाने वालों के बीच भी छिडा है। सर्वोच्च परमशक्ति पर विश्वास रखने का ढकोसला करने वाले वास्तव में उस सत्ता में विश्वास ही नहीं रखते बल्कि लुभावने शब्दों में मनमानी व्याख्या करने वालों पर विश्वास रखते हैं। ऐसे में व्याख्याकरों, उपदेशकारों, टीकाकारों, तकरीरकारों, प्रवचनकारों आदि का एक बडा तबका स्वयं के भौतिक लाभ के लिए ही अलौकिक सत्ता को हथियार बना रहा है, विसंगतियां प्रस्तुत कर रहा हैं, जीवन के बाद के अनदेखे संसार का काल्पनिक चित्र उपस्थित करता है और फिर विश्वास की आड में लोगों को अंधविश्वासी बना डालता हैं। अंधविश्वासी बने लोग ही तो फिदायनी, आत्मघाती और जेहादी बनकर कल्पना लोक में सुख भोगने की लालसा को फलित होते देखना चाहते हैं। उन्हें नहीं मालूम कि वे जिस के पीछे भाग रहे है। वह केवल और केवल मृगमारीचिका ही है।
ईमानदाराना बात तो यह है कि आज संसार में लगभग सभी लोग किसी न किसी समस्या से ग्रसित हैं। भौतिक समस्या, शारीरिक समस्या, सामाजिक समस्या, पारिवारिक समस्या, भावनात्मक समस्या से लेकर वैभव की कामना, विलासता के सपने, सुख के हिंडोले, अकर्मण्यता के वर्चस्व, सम्मान की भूख, सत्कार की प्यास जैसे अनगिनत कारकों के मकडजाल में लोग जकडते जा रहे हैं। वे इस नाशवान शरीर के एक दिन समाप्त हो जाने की सच्चाई को भी झुठलाये बैठे हैं। ऐसे लोग ज्यादा से ज्यादा धन संचय, सम्पत्ति संचय और वैभव संचय कर लेना चाहते हैं ताकि उनका तथा उनके परिवारजनों का भविष्य सुरक्षित हो सके। यह सारा परिदृश्य उन व्याख्याकारों की देन है जो स्वयं को परमशक्ति के सबसे निकट होने का दावा करते हैं। ऐसे लोग न तो सत्य को जानते हैं और न ही सत्य को जानने देने चाहते हैं। पीडित मानवता के हित में काम करने के लिए सभी धर्मों में निर्देश दिये गये हैं परन्तु पीडित मानवता की परिभाषायें सीमित लोगों के समुदाय तक सिमट कर रह गईं हैं। समान आचरण करने वालों के हितों को साधने का काम करना ही धार्मिक आचरण है, ऐसा कहकर अनेक व्याख्याकारों ने सर्वोच्च सत्ता के निर्देशों को ही विकृत कर दिया है। गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि दूसरों को धर्म की शिक्षा देने वाले स्वयं के लिए तथा अपनों के लिए दोहरे मापदण्ड अपनाते हैं।
लोगों को काम, क्रोध, मद, लोभ के भंवर जाल से निकालने का प्रवचन देने वाले अधिकांश व्याख्याकार स्वयं इसी दलदल में आकण्ठ डूबे नजर आते हैं। धन के प्रति लोभ, सम्मान के प्रति मद, इच्छा के विरुध्द कार्य होने पर क्रोध और अनुकूल परिस्थितियां मिलते ही काम जागृत होने वाली स्थितियों में जकडे अनेक व्याख्याकारों व्दारा मंच के पीछे के आचरणों का प्रत्यक्षीकरण ही उनकी वास्तविकता होती है। ऐसे लोग लुभावने शब्दों के जाल में श्रध्दालुओं को फंसाकर उन्हें धर्म के नाम पर एकजुट करते हैं और फिर शुरू कर देते हैं अपनी सोचे-समझे षडयंत्र का क्रियांवयन। धर्म संकट में है, का नारा बुलंद किया जाता है। वहीं हाथी के दांतों की कहावत को चरितार्थ करने वाले मौलावियों-मौलानाओं की अनेक जमातें भी स्वयं की संतानों को अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध करवाकर उनके भविष्य को उज्जवल करने में लगीं हैं। दूसरी ओर यही जमातें अपने अनुयायियों, उनकी संतानों और सहयोगियों को कट्टरपंथ की शिक्षा देकर उन्हें पत्थर, हथियार और बम पकडा रहे हैं।
इस्लाम खतरे में हैं, को फैलाया जाता है। धर्म के नाम पर मरने वालों को शहीद बताकर तथा धर्म के नाम पर मारने वालों को गाजी के रूप में इज्जत देकर कयामत से पहले ही जन्नत नसीब होने का दावा करने वाले यह सब केवल अनुयायियों के लिए ही लागू करते हैं। न तो वे स्वयं ही इस राह पर चलते हैं और न ही स्वयं के परिवारजनों को ही चलने देते हैं। यही हाल दुनिया के विभिन्न मतावलम्बियों के वर्गो में भी देखने को मिलता है। समाज के समक्ष और एकांत में किये जाने वाले आचरणों में जमीन आसमान का अंतर गहरी खाई बनता जा रहा है जिससे उठने वाला तूफान निरंतर तेज होता जा रहा है। यही कारण है कि आज समूचे विश्व में आस्था संकट का दावानल समूची मानवता को निगलता जा रहा है और आम आवाम हवा के रुख के साथ विवेक शून्य होकर उडती जा रही है। ऐसे में वास्तविक धर्म की संवेदनाशीलता किस्तों में कत्ल हो रही है। आवश्यकता है तो समाज की इकाई को स्वयं के निरीक्षण, परीक्षण और मूल्यांकन की, तभी अन्तरआत्मा के शब्द सुनाई पडेंगे और उनके आधार पर मानवता का मूल्यनिष्ठ समाज पुनर्निमित हो सकेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।