-प्रभुनाथ शुक्ल-
मुंबई से अहमदाबाद जाने वाली ट्रेन तक़रीबन घंटे भर बिलम्ब से आने की अनाउंसमेंट हुईं थी। मेरे पास कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। गर्मी बहुत थी, लेकिन बांद्रा स्टेशन के जिस बेंच पर बैठा था उसका पंखा बढ़िया चल रहा था। वक्त गुरने के लिए मैं अख़बार पढ़ने लगा। वह तीसरी बार मेरे सामने आकर अड़ गया।
$$$$$ सर… सर पॉलिश
बोला न मुझे नहीं करानी। देखते नहीं बूट चमक रहीं है। तुम लोग खालीपिली सुबह-सुबह मगजमारी करते हो।
नहीं साहब, ऐसी बात नहीं है। क्या करें अपना धंधा है। पैसा इतने आराम से थोड़े आता है साहब। अभी बोहनी नहीं हुईं है। पॉलिश करा लीजिए साहब माँ की दवा लानी है। उसे कई दिन से बुखार है। खाना भी छोड़ दिया है। अभी घर जाऊँगा तो सारा काम भी करना है।
मुझे उसकी बात सुनकर दया आ गयीं। मेरी आँखें नम हो गयीं।मैं न चाहते हुए भी बूट उसकी तरफ बढ़ा दिया।
तेरा नाम क्या है।
छोटू साहब!
…और उम्र साहब तक़रीबन 12 साल
तेरा बाप क्या करता है
बस साहब! बाबू दारु पीकर टुन्न रहता है। माँ जो घरों से चौका-वर्तन कर पैसा लाती है वह सब दारु में उड़ा देता है। पैसा न देने पर माँ और मुझे भी मारता है। कभी-कभी पैसा न रहने पर भूखों सोना पड़ता है। मेरी तो माँ ही एक सहारा है साहब, बस उसी के लिए बूट पॉलिश करता हूँ।
छोटू तुम स्कूल जाते हो…?
साहब, घड़ी में कितने बजे हैं!
दस बजने को हैं। मैं ने मोबाइल में समय देखते हुए उसे बताया।
फिर साहब!
अब तक तो स्कूल में रहता, स्टेशन पर बूट पॉलिश थोड़ी करता। उसके जबाब से मैं सोचने पर मजबूर हो गया था कि समाज को बालश्रम से मुक्त कराने का सरकारी दावा कितना खोखला है।
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और समीक्षक)