– कुमार मुकेश –
यूक्रेन-रूस युद्ध को शुरू हुए छह माह से अधिक हो चुके हैं। इसने उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) को शीत युद्ध के बाद फिर एक बार न सिर्फ वैश्विक मंच पर सुर्खियों में ला दिया, बल्कि दो और देश भी इसके सदस्य बन गए। भारत भी नाटो के सदस्य देशों के संपर्क में रहता है। खासकर चीन और पाकिस्तान की नाटो देशों से परस्पर द्विपक्षीय बातचीत के बाद भारत नें 2019 में पहला राजनीतिक संवाद किया था।
नाटो एक राजनीतिक और सैन्य गठबंधन है, जिसमें यूरोप के 28 और उत्तरी अमेरिका के दो देश शामिल हैं। इसका गठन 1949 में अमेरिका, कनाडा और पश्चिमी यूरोप के कुछ और देशों ने किया था। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद से भारत ने अपनी विदेश नीति की आधारशिला के रूप में रणनीतिक स्वायत्तता पर जोर देते हुए सभी सैन्य गठबंधनों से दूरी बनाई। फिर भी भारत कई वर्षों से नाटो के साथ समन्वय कर रहा है।
पिछले कुछ वर्षों में चीन के राजनीतिक रूप से विश्वसनीय और समान विचारधारा वाले राज्यों के साथ घनिष्ठ सुरक्षा संबंधों ने भारत की चिंता को बढ़ाया है। विशेषज्ञों का मानना रहा कि इस भू-राजनीतिक चुनौती से निपटने के लिए भारत को चीनी शक्ति के आधिपत्य के प्रति-संतुलन के लिए अधिक प्रयास करने होंगे।
अमेरिका की ओर से कहा जाता रहा है कि अगर भारत को नाटो प्लस में शामिल किया जाता है तो भारत को अमेरिका के साथ रक्षा-सुरक्षा से आसानी से जोड़ा जा सकेगा। ऐसा करने से भारत और अमेरिका के रिश्तों में गहराई आएगी और चीन पर दबाव बनेगा। गौरतलब है कि जुलाई में अमेरिकी निचले सदन में राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम (एनडीएए) को भारी बहुमत से मंजूरी मिली थी। इसे अमेरिकी सांसद रो खन्ना ने पेश किया था।
उन्होंने यह भी कहा कि क्षेत्र में चीन के प्रभाव को रोकना जरूरी है। चीन का प्रभाव कम करने के लिए अगर किसी भी तरह से भारत की मदद की जाएगी तो वह अमेरिका के हित में ही होगा। ऐसे समय में जब नाटो चीन द्वारा उत्पन्न खतरों पर अधिक ध्यान केंद्रित कर रहा है, भारत के लिए नाटो के साथ जुड़ना समझ में आता है।
गौरतलब है कि अफगानिस्तान में, 2001 और 2021 के बीच भारत की महत्वाकांक्षी विकास परियोजनाएं नाटो बलों के सुरक्षा समर्थन पर निर्भर थीं। विभिन्न पक्षों को देखते हुए नाटो देशों के साथ एक व्यावहारिक जुड़ाव भारत की विदेश नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा होना चाहिए। परंतु नाटो के साथ जुड़ाव भारत के बहुध्रुवीय दुनिया की दिशा में काम करने के लक्ष्य को कमजोर करेगा। इसलिए भारत को नाटो के साथ संबंध सीमित रखने चाहिए। भारत को नाटो का औपचारिक सदस्य बनने से बचना चाहिए।