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Monday, December 4, 2023

पड़ोसी की शांति में ही निहित है अपनी भी शांति

-तनवीर जाफ़री-

जिन ब्रिटिश शासकों से के विरुद्ध संयुक्त भारत के सभी लोगों ने मिलकर पराधीन भारत को स्वाधीनता दिलाई थी, 1947 में हुये दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद उसी भारत से पाकिस्तान नामक एक नये राष्ट्र का उदय हुआ। इस्लामी राष्ट्र बनाने से लेकर विश्व इस्लामी जगत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने जैसे ‘हवा-हवाई इरादों’ के परिणामस्वरूप पाकिस्तान का गठन हो गया। और अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ते छोड़ते भारत को विभाजित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुये हमारी शक्ति को कम किया। दरअसल वैश्विक राजनीति में किसी राष्ट्र को कमज़ोर करना, उसकी आंतरिक फूट का लाभ उठाना, उसे क़र्ज़ व आर्थिक सहायता जैसे ‘उपकारों’ से दबाकर रखना, उसे उसी के पड़ोसी के साथ उलझाने यहाँ तक कि संभव हो तो लड़ाने की साज़िश करना आदि राजनायिक भाषा में एक ‘सफल कूटनीति’ समझी जाती है। उसी का अनुसरण करते हुये अंग्रेज़ों ने हिन्दू-मुस्लिम राजनैतिक विवाद को हवा देते हुये भारत विभाजन के लिये खेला। कमोबेश वैसी ही राजनीति 1971 में ‘बंगाली मुसलमानों के हक़ की आवाज़’ उठाने के नाम पर भारत द्वारा की गयी।

पाकिस्तान के विभाजन के लिये भारत ने पूर्वी पाकिस्तान का तब तक साथ दिया जब तक नव राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश अस्तित्व में नहीं आ गया। इसी दौर में बंग्लादेश से असीमित संख्या में बंग्लादेशियों ने भारत की ओर शरणार्थी के रूप में कूच किया। भारत पर भारी आर्थिक बोझ पड़ा। और आजतक वही शरणार्थी ‘बांग्लादेशी मुसलमान’ के नाम से विशेष राजनैतिक विचारधारा के लोगों के लिये ‘राजनीति’ करने का कारक बने हुये हैं। बांग्लादेश के गठन के बाद ख़ासकर भारत-पाक-मुक्ति मोर्चा संघर्ष के दौरान हुये विश्व के सबसे बड़े आत्म समर्पण के बाद वही पाकिस्तान और विशेषकर वहां के शासक व सेना भारत को अपने सबसे बड़े दुश्मन की नज़र से ज़रूर देखने लगे। नतीजा सामने है, कश्मीर को विवादित करने के अंतराष्ट्रीय प्रयासों से लेकर भारत में आतंक फैलाने तक, ड्रग्स व हथियारों से लेकर नक़ली करेंसी भारत भेजने तक और हनी ट्रैप में लोगों को फंसाने जैसे हथकंडे तक पाकिस्तान भारत के विरुद्ध आज़माता रहता है। और अब विगत तीन दशकों से उसी पाकिस्तान की व्यवसायिक प्रगाढ़ता चीन से बढ़ती जा रही है। यहां तक कि भारत विरोध की आग में तपता पाकिस्तान, चीन के शिकंजे में बुरी तरह उलझता जा रहा है।

उधर भारत का दूसरा घनिष्ठ पड़ोसी देश नेपाल है। राजशाही समाप्त होने के बाद यहाँ की लोकतांत्रिक राजनीति में भी उथल पुथल मची रहती है। जिस नेपाल के करोड़ों लोग भारत में रोज़गार पाते हैं, जहाँ के लोग भारतीय सेना सहित भारत की ही अनेक सरकारी व ग़ैर सरकारी नौकरियों में भी सेवा करने का अवसर पाते हों वही नेपाल कभी कभी भारत को भी आँखें दिखाने लगता है। क़रीबी पड़ोसियों के रूप में भारत और नेपाल के अद्वितीय सम्बन्ध हैं, जिसमें व्यवसाय, खुली सीमायें, जनता के बीच रिश्ते नाते, व साहित्य व संस्कृति के गहरे सम्बन्ध भी हैं। परन्तु यहां यह जानना भी ज़रूरी है कि इन संबंधों के बावजूद भी नेपाल की पीठ पर भी चीन का हाथ है जो अपने भारत विरोधी दूरगामी राजनैतिक मक़सद के तहत पकिस्तान की ही तरह नेपाल को भी अपने चंगुल में फंसाना चाहता है। गत वर्ष नवंबर में नेपाल हुये संसदीय चुनाव के समय यह आशंका भी जताई गयी थी कि चीन, नेपाल में पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी के साथ मिलकर भारत विरोधी साज़िशें रच सकता है। ख़बरों के मुताबिक़ इसके लिए चीनी सुरक्षा एजेंसी मिनिस्ट्री आफ़ स्टेट सिक्योरिटी ने पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (ISI) के साथ काम भी शुरू कर दिया था।

भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की इस रिपोर्ट पर 18 अगस्त 22 को दिल्ली में हुए राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मेलन 2022 में चर्चा भी हुई थी। इसे लेकर गृह मंत्रालय ने नेपाल से सटे उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल व सिक्किम को भी सचेत किया था। उसी दौरान चीन के तीसरे सबसे बड़े नेता ली झांशु ने काठमांडू का दौरा किया था। हालांकि नेपाल के लोग पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध चीन के साथ मिलकर रची जा रही साज़िश से बाख़बर ज़रूर हैं परन्तु इसके बावजूद चीन, पाकिस्तान के सहयोग से नेपाल के माध्यम से भारत में अस्थिरता फैलाने का षड़यंत्र पूरी ताक़त के साथ रच रहा है। राजनैतिक विश्लेषकों के अनुसार भारत और नेपाल के रिश्तों में 2015 से ही तब कडुवाहट शुरू हो गई थी जब भारत ने नेपाली आपूर्ति के विरुद्ध ‘ब्लॉकेड’ किया था। इस ब्लॉकेड का पूरा फ़ायदा चीन ने नेपाल के प्रति हमदर्दी जताते हुये उठाया था। इसी तरह भारत चीन के विवादों का कारण भारत चीन सीमावर्ती अनेक इलाक़े तो हैं ही परन्तु चीन को भारत से सबसे अधिक तकलीफ़ तिब्बत की स्वायत्ता के मुद्दे पर तिब्बत का साथ देना भी है।

चीन अपने आर्थिक संसाधनों और कूटनीति की मदद से दक्षिण एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। उस की नेपाल पर कुदृष्टि का भी ऐतिहासिक सन्दर्भ है। चीन के प्रथम कम्युनिस्ट नेता व संस्थापक माओत्से तुंग ने एक बार सार्वजनिक रूप से यह कहा था कि-‘तिब्बत हमारी हथेली और लद्दाख़, नेपाल, भूटान, सिक्किम व अरुणाचल प्रदेश यह पाँच उंगलियां हैं। हथेली तो हमने ले ली है और अब पाँच उंगलियों को भी आज़ाद कराना है। परन्तु चूंकि आज के दौर में परोक्ष रूप से सैन्य शक्ति का प्रयोग कर क्षेत्रीय विस्तार करना बेहद कठिन है इसलिए चीन इन इलाक़ों को विवादित बनाना तथा यहां अपना प्रभाव बढ़ाकर भविष्य का अपना राजनैतिक व भौगोलिक विस्तार का इरादा ज़रूर साफ़ करना चाहता है। दूसरी तरफ़ इसी के साथ साथ नेपाल में एक नये राष्ट्रवाद का स्वर बुलंद हो रहा है जिसका एक बड़ा हिस्सा भारत विरोधी है। इन सबके बावजूद वर्तमान भारतीय सत्ता की प्राथमिकता नेपाल का विश्वास जीतने, उसे चीन व पकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों के कुचक्र से दूर रखने से अधिक इस बात में रहती है कि किसी तरह नेपाल पुनः ‘हिन्दू राष्ट्र ‘ बन जाये। गत वर्षों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जितनी भी नेपाल यात्रायें हुयी हैं उनमें उनके तेवर, लिबास, भाव भंगिमा, अंदाज़ आदि को देखकर इस बात का अंदाज़ा भी बख़ूबी लगाया जा सकता है। नेपाल व भारत के लोगों के लिये यह एक भावनात्मक स्टैंड तो हो सकता है परन्तु इससे नेपाल के लोगों का दिल जीतने तथा उससे रिश्ते सुदृढ़ करने या फिर उसे चीन व पकिस्तान से दूर ले जाने में शायद ही कोई मदद मिले।

अब नेपाल में पोखरा स्थित शालिग्रामी नदी या काली गंडकी से अहिल्या रूपी पत्थर की 6 करोड़ वर्ष प्राचीन बताई जा रही दो विशाल शिलाएं नेपाल से चल कर अयोध्या पहुंचे चुकी हैं। बताया जा रहा है कि संभवतः इन्हीं शिलाओं से बनी मूर्तियां या तो गर्भगृह में रखी जाएंगी अन्यथा राम मंदिर परिसर में कहीं और स्थापित होंगी? इसके अतिरिक्त अयोध्या जनकपुर (नेपाल) के मध्य राम जानकी मार्ग नामक एक विशेष मार्ग भी प्रस्तावित है। रेल व वायु मार्ग से भी दोनों देशों के बीच धार्मिक पर्यटन को विकसित किये जाने के प्रस्ताव हैं। परन्तु यह सभी उपाय उस समय धरे के धरे रह जाते हैं जब जनता अपने देश तथा वहाँ के विकास से अधिक अपने देश के अन्य निजी मामलों में दूसरे देशों का दख़ल महसूस करने लगती है। हमें केवल पाकिस्तान व नेपाल ही नहीं बल्कि श्री लंका में भी पिछले दिनों हुई उथल पुथल व उनके कारणों को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिये। भारतीय नेतृत्व के समक्ष इन परिस्थितियों में सभी पड़ोसी देशों से सामंजस्य बनाये रखना बेशक एक बड़ी चुनौती है। दुनिया के सभी देशों को यह स्वीकार करना चाहिये कि आख़िर पड़ोसी की कमज़ोरी, उसकी निर्भरता तथा वहाँ की राजनैतिक अथवा आर्थिक ‘अशांति’ में नहीं बल्कि पड़ोसी की शांति में ही अपनी भी शांति निहित है?

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