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Friday, September 22, 2023

देश के ज्ञान की बानगी है चन्द्रयान-3

-डा. रवीन्द्र अरजरिया-

dr. ravindra arjariya
dr. ravindra arjariya

समूची दुनिया में देश के चन्द्रयान-3 की चर्चा जोरों पर है। इसरो के वैज्ञानिकों ने न केवल विक्रम लैंडर की चांद के दक्षिणी ध्रुव वाले दुर्गम इलाके में सफल लैंडिंग कराई बल्कि प्रज्ञान रोवर को वहां की धरती पर उतार कर उसे सक्रिय भी कर दिया। अपने ही चन्द्रयान-2 के आर्बिटर से ली गई तस्वीर सांझा करते हुए राष्ट्र की स्वदेशी तकनीक के झंडे गाड दिया। इस उपलब्धि पर पूरा देश गौरवान्वित हो रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसरो के बैग्लुरू स्थित कमांड सेन्टर पहुंचकर वैज्ञानिकों को रू-ब-रू बधाई देते हुए 23 अगस्त को नेशनल स्पेस डे, चन्द्रयान-3 के उतरने वाली जगह को शिव शक्ति प्वाइंट तथा चन्द्रयान-2 की छाप छोडने वाले स्थान को तिरंगा प्वाइंट  की घोषणा की।

आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भारत का परचम फहराना कोई नई बात नहीं है। देश के ज्ञान की बानगी भर है चन्द्रयान-3। इस भूभाग के निवासियों ने सनातनकाल से ही अपने अलौकिक अनुसंधानों, उनके कल्याणकारी परिणामों तथा जीव-प्रकृति की निरंतरता के लिए कार्य किये हैं। केवल चांद, मंगल जैसे निकटवर्ती ग्रहों पर पहुंचकर आज का मानव अपनी पीठ ठोक रहा है जबकि अतीत में हमारे परा-वैज्ञानिक जिन्हें ऋषि, मुनि या तपस्वी जैसे संबोधन दिये जाते थे, ने अपनी प्रतिभा को क्षमताओं की चरमसीमा पर पहुंचाकर ब्रह्माण्ड के सभी ग्रहों की पृथ्वी से दूरियां, वहां की प्रकृति, वहां के वातावरण और वहां की परिस्थितियों जैसे सभी पक्षों को जानकर सांकेतिक भाषा में पहले ही लिपिबध्द कर दिया था। सनातन साहित्य के पुरातन ग्रन्थों के भण्डार में हमारे ऋषियों व्दारा की गई खोजों को आज भी देखा जा सकता है। उस दिव्य भण्डार की धूल के एक कण ही पर गहन शोध करने के बाद विश्व के आधुनिक वैज्ञानिकों को वर्तमान सफलतायें मिल रहीं है। अभी तो बहुत कुछ जानना बाकी है।

ज्योतिष शास्त्र, अंक शास्त्र, रसायन शास्त्र, औषधि शास्त्र, शस्त्र शास्त्र, जल शास्त्र, वायु शास्त्र, पाषाण शास्त्र, खनिज शास्त्र, शरीर शास्त्र, जीव शास्त्र, वनस्पति शास्त्र जैसे 108 मूल शास्त्र तथा उनके अनेक अनुभाग मिलाकर 1008 उप-शास्त्रों का ज्ञान भण्डार हमारे देश में उपलब्ध था जिसे आक्रान्ताओं ने लूट और न लूट सकने की स्थिति में उसे नष्ट कर दिया। उस दौरान अहिंसा परमोधर्मा: के आदर्श वाक्य पर चलने वाले निवासियों ने अपनी सीमाओं, मर्यादाओं और सिध्दान्तों के अनुशासन में रहकर प्रतिकार किया किन्तु वे मनमाने आचरण करने वाले असुरीय प्रवृति के गिरोह का मुकाबला नहीं कर सके। परिणामस्वरूप ऋषियों की अनेक दुर्लभ खोजों की जानकारियां अस्तित्वहीन हो गईं और कराहती मानवता ने घुट-घुटकर दम तोड दिया। आज दुनिया एक बार फिर से शुरूआती दौर के अनुसंधानों पर जी-जान से प्रयास कर रही है। इस श्रंखला में चंद्रयान की उपलब्धियों ने अन्तरिक्ष विज्ञान में भारत को पुन: सिरमोर बना दिया है। सनातन साहित्य में उल्लेखित है कि सृष्टि के निर्माता ने धरती की आधार शिला रखने के दौरान स्वयं ही विशेष कर्मयोगियों के लिए आधारभूमि तैयार कर दी थी। उन्होंने अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं को विकसित करके प्रकृति के अनेक रहस्यों को जान लिया था। सप्तऋषियों के प्रयासों को आज प्रकाशस्तम्भ के रूप में देखा जा रहा है।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार कश्यप ऋषि को सृष्टि के सृजन का श्रेय देते हुए उन्हें संतानोत्पत्ति से लेकर वनस्पतियों की स्थापन तक का सूत्रधार माना जाता है। अत्रि ऋषि को औषधि शास्त्र से लेकर चिकित्सा शास्त्र तक के प्रणेता के रूप में स्थापित किया गया है। उन्हें देवताओं के चिकित्सक अश्वनी कुमारों ने ही शिक्षित-प्रशिक्षित किया था। वेदांत के अनूठे ज्ञान की स्थापना करने वाले वशिष्ठ ऋषि के संदर्भ में आदि शंकराचार्य के स्वयं अपनी लेखनी से अनेक रहस्योद्घाटन किये हैं। संकल्पशक्ति से तपस्चर्या तथा सामर्थ से पुरुषार्थ संतुलित समुच्चय करने वाले वशिष्ठ ऋषि ने सफलता के लिए एकाग्रता के विभिन्न सूत्र दिये थे जिन पर चलकर बहुआयामी लक्ष्यों का एकसाथ भेदन किया जा सकता है। जन्मांध गौतम ऋषि की वाक्य सिध्द तथा संवेदनशीलता का उदाहरण देवराज इंद्र तथा स्वयं की पत्नी अहिल्या को दी जाने वाली शाप स्वयं है। नेत्रविहीनता को उन्होंने अपनी प्रतिभा के लिए अवरोध न मानते हुए वरदान बना लिया था। इसे अन्तर्दृष्टि की विकसित क्षमता के रूप में आज भी परिभाषित किया जाता है।

जमदग्नि ऋषि की सूक्ष्म तंरगीय साधनाओं ने इच्छित परिणामों को व्यवहार के धरातल पर उतारा था और भारव्दाज ऋषि को तो शस्त्र शास्त्र, विमान शास्त्र, अर्थ शास्त्र आदि का ज्ञाता माना जाता है। उन्होंने विमान शास्त्र में तो 8 अध्यायों में समाहित 3000 श्लोकों के माध्यम से अद्भुद सूत्र दिये हैं जिनमें लडाकू विमान, अंतरिक्ष विमान, मानवरहित विमान, दूरनिर्देशित विमान, स्व:निर्देशित विमान, असीमित क्षमता वाले यात्री और मालवाहक विमान, विध्वंशक विमान, सुगंधवर्षा विमान, वायुमण्डल पवित्रीकरण विमान जैसे अनेक विमानों के निर्माण, उनके रखरखाव तथा उनके संचालन की व्याख्या की गई है। इसी शास्त्र के अंशिक संकेतों के आभाषीय प्रकाश में ही वर्तमान यानों, मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों आदि का निर्माण किया जा रहा है। सप्तऋषियों के संबंध में शतपथ ब्राह्मण के हटकर महाभारत में ऋंगी ऋषि, मरीचि ऋषि, अत्रि ऋषि, अंगिर ऋषि, पुलह ऋषि, क्रतु ऋषि, पुलस्त्य ऋषि तथा वसिष्ठ ऋषि के नामों का उल्लेख हैं। ऋषियों ने न केवल सांसारिक सृष्टि के कल्याणार्थ अपने प्रयोगों को अनुष्ठानों के रूप में संकल्पशक्ति के साथ गुरुसत्ता का सानिध्य पाकर पूरा किया था बल्कि स्वयं के लिए भी एक पृथक सृष्टि का निर्माण कर लिया था।

आज भी वे सप्त तारामण्डल के रूप में अंतरिक्ष में सजीव हैं। जो पृथ्वी के उत्तरी गोलार्थ यानी हेमीस्फेयर के आकाश में सनातनी माह फाल्गुन-चैत से लेकर श्रावण-भाद्रपद तक रात को सहजता से देखे जा सकते हैं। पतंग के आकार में यह सभी ग्रह एक साथ घूमते हैं। जिनका केन्द्र ध्रुव तारा होता है। दूसरी शताब्दी ईसवी में टालमी नामक वैज्ञानिक ने जिन 48 तारामण्डलों की सूची बनाई थी उसमें भी सप्त तारामण्डल शामिल है। वर्तमान अध्ययनों में सूर्य मण्डल से लेकर धु्रव मण्डल तक सात मण्डलों की उपस्थिति मानी गई है। पृथ्वी से 1 लाख योजन दूर सूर्य मण्डल है जब कि चांद भी सूर्य मण्डल से 1 लाख योजन की दूरी पर है। यानी कि पृथ्वी का उपग्रह होने के कारण उसकी समान दूरी होना स्वाभाविक ही है। सूर्य मण्डल से नक्षत्र मण्डल तक की दूरी भी 1 लाख योजन ही मानी गई है जबकि बुध मण्डल की दूरी 2 लाख योजन, शुक्र मण्डल की 2 लाख योजन, मंगल मण्डल की 2 लाख योजन, वृहस्पति मण्डल की 2 लाख योजन, शनि मण्डल की 2 लाख योजन, सप्तर्षि मण्डल की 2 लाख योजन तथा ध्रुव मण्डल की 1 लाख योजन मानी गई है।

सप्तऋषि मण्डल को अंग्रेजी में अनेक स्थानों पर यूर्सा मिनोर तथा सप्त ऋषियों को डिप्पेर कहा गया है। उनकी अपनी सृष्टि है, अपनी वायुमण्डल है, अपना पर्यावरण है, अपनी प्रकृति है, अपना अनुशासन है। यह अलग बात है कि विज्ञान अभी तक वहां नहीं पहुंच सका है परन्तु ऋषि पंचमी के सनातनी पर्व पर इन सप्त ऋषियों के साथ-साथ अनेक अनजाने ऋषियों तक श्रध्दालुओं की पहुंच कर्मकाण्डीय तथा ध्यानकाण्डीय विधा से उन तक हो जाती है जिसका प्रभाव भी स्थूल काया में उल्लासित ऊर्जा के रूप में अनुभव होता है। इस हेतु वैदिक विधानों का पालन करते हुए एकाग्रता, ध्यान और योग के विभिन्न पायदानों से गुजरना पडता है। अतीत के ग्रन्थ और सनातनी परम्पराओं को लेकर देश अब संवेदनशील हुआ है। ऐसे में आधुनिक विज्ञान के सहारे चल रहे प्रयासों के समानान्तर सनातनी शोध कार्य भी प्रारम्भ होना नितांत आवश्यक हो गया है।

सरकारों को दूर दराज के ग्रामीण परिवेश और दुर्गम इलाकों में गुरुकुल परम्परा के अनुरूप परा-विज्ञान के शोध केन्द्र स्थापित करना चाहिए। महानगरों से दूर प्रकृति की गोद में ही यह कार्य सम्भव हो सकता है परन्तु इसके लिए राजनैतिक मानसिकता सत्ताधारी दल तथा विपक्ष को एक साथ त्यागना होगी। उदाहरण के लिए देश में सैध्दान्तिक रूप से प्राकृतिक चिकित्सा एवं योग के शोध एवं विकास हेतु विश्वस्तरीय संस्थान दिल्ली में खोला गया जबकि पारम्परिक चिकित्सा के पहले वैश्विक केन्द्र की स्थापना गुजरात के जामनगर में हुई। इन संस्थानों के माध्यम से शोध कार्यों से ज्यादा नेताओं को दलगत लाभ, नियुक्त होने वालों को सुविधायें तथा महानगरों पर भीड का दबाव ही प्रभावी होगा। प्राकृतिक चिकित्सा पर शोध के लिए प्रकृति की गोद तथा परम्पारगत चिकित्सा पर शोध के लिए आदिवासी बाहुल्य इलाके ज्यादा महात्वपूर्ण होते हैं परन्तु देश की कार्यपालिका के अनेक आरामखोर अधिकारियों की बडी जमातें पाश्चात्य संस्कृति में रचे बसे अपने परिवारजनों की अनुकूलता को ही प्राथमिकता देते हैं। ऐसे अधिकारी राष्ट्रहित की कीमत पर भी परिवारहित ही स्वीकारते हैं।

दूसरी ओर जी-20 सम्मेलन के तहत परम्परागत चिकित्सा पध्दतियों पर आयोजित किये गये कार्यक्रम में 75 देशों के प्रतिनिधियों ने भागीदारी दर्ज की जिसमें भागीदारी दर्ज करने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन के महासचिव डा. ट्रेडोस ने भारत के घर-घर में पूजी जाने वाली तुलसी के रोपण पर स्वयं को सौभाग्यशाली घोषित किया। वातानुकूलित कमरों में जब तक देश के भविष्य की बुनियाद रखने की रूपरेखा बनाई जाती रहेगी तब तक धरातली उपलब्धियों की कामनायें किसी मृगमारीचिका के पीछे भागने जैसी ही होगी। इसी कारण परा-विज्ञान के शोध के लिए गुरुकुल परम्परा का निर्वहन करते हुए एक विश्वस्तरीय संस्थान की स्थापना प्रकृति के मध्य स्थापित होना चाहिए। साधना के मापदण्डों पर खरे उतरने वाले निर्जन स्थान पर ही होने वाली इस स्थापना से ही आने वाले समय में ऋषि परम्पराओं की थाथी को पुनस्र्थापित की जा सकेगी। वर्तमान में आवश्यक हो गई है परा-विज्ञान के शोध संस्थान की स्थापना ताकि सृष्टि के कल्याणकारी सूत्रों से एक बार पुन: सुख, शान्ति और समृध्दि की बयार चले और आनन्दित वातावरण में जीवन यात्रा पूरी हो सके। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।

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