नई दिल्ली, (वेब वार्ता)। लोकतंत्र का असली चेहरा केवल संसद भवन की चारदीवारी में नहीं, बल्कि उन सड़कों पर दिखता है, जहाँ जनता अपनी मांगें, असहमति और उम्मीदें लेकर उतरती है। जब जनता की आवाज़ सड़कों पर गूंजती है, तो संसद भी सजग और जवाबदेह बनी रहती है। लेकिन अगर सड़कें सूनी हो जाएँ, विरोध की आवाज़ें दब जाएँ, तो संसद का चरित्र भी भटक सकता है।
सड़क और संसद का रिश्ता
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में, कई महत्वपूर्ण बदलाव सड़कों से शुरू हुए हैं — चाहे वह आज़ादी का आंदोलन हो, आपातकाल के खिलाफ जनआंदोलन, या भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन। सड़कें संसद को यह याद दिलाती हैं कि सत्ता जनता की है, और संसद का कर्तव्य है जनता के हितों की रक्षा करना।
सत्ता और असहमति का संतुलन
लोकतंत्र में असहमति कोई खतरा नहीं, बल्कि यह एक सुरक्षा कवच है। जब विपक्ष और जनता अपनी बात खुलकर कह सकते हैं, तो नीतियां संतुलित और पारदर्शी रहती हैं। लेकिन अगर सत्ता असहमति को दबाने लगे, सड़कों को खाली कराने लगे, तो संसद में केवल सत्ता पक्ष की आवाज़ रह जाती है — और यही “संसद का आवारा हो जाना” है।
आज का संदर्भ: INDIA ब्लॉक का विरोध मार्च
आज विपक्षी गठबंधन ‘INDIA ब्लॉक’ का संसद से चुनाव आयोग तक मार्च इसी लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा है। उनका आरोप है कि मतदाता सूची में गड़बड़ी हुई है। दिल्ली पुलिस ने इस मार्च की अनुमति न देकर तनावपूर्ण स्थिति पैदा कर दी है।
यह सवाल उठता है — अगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में शांतिपूर्ण विरोध की जगह भी सिकुड़ जाएगी, तो जनता अपनी बात कहां रखेगी?
लोकतंत्र का स्वास्थ्य
लोकतंत्र तब स्वस्थ रहता है, जब संसद और सड़कें, दोनों ही जीवंत रहें। सड़कें संसद को आईना दिखाती हैं, और संसद सड़कों की उम्मीदों को नीतियों में बदलती है।
इसलिए, अगर सड़कें सूनी हो गईं, तो संसद केवल सत्ता के गलियारों में खो जाएगी — जनता की नब्ज़ से दूर, आवारा और बेमकसद।