जब तक विधायक, मंत्री और अफसरों के बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते रहेंगे, तब तक सरकारी स्कूलों की हालत नहीं सुधरेगी। अनुभव से नीति बनती है, और सत्ता के पास उस अनुभव का अभाव है। स्कूलों में छत गिरने से मासूमों की मौत, किताबों की कमी, अधूरे शौचालय-ये सब आम जनता के हिस्से में ही क्यों? यह समय की मांग है कि जनप्रतिनिधि और अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएँ, ताकि वे खुद देख सकें कि किस शिक्षा व्यवस्था को वे बेहतर बनाने का दावा कर रहे हैं….
-डॉ. सत्यवान सौरभ-
देश के किसी भी कोने में जाइए, एक दृश्य लगभग समान मिलेगा-सरकारी स्कूलों की टूटी छतें, जर्जर दीवारें, अधूरी दीवारों पर टंगे नामपट्ट, शिक्षकों की भारी कमी, और बच्चों की आँखों में सपनों की भी क्षीण रोशनी। वहीं दूसरी ओर शिक्षा के नाम पर चमचमाते निजी स्कूल, लाखों की फीस, स्मार्ट क्लास, और सत्ताधारियों के बच्चे उसी में दाखिल। ऐसे में सवाल उठता है-“जो नीति बनाते हैं, क्या उन्हें खुद कभी उस नीति की आग में तपना पड़ता है?”
सत्ता और शिक्षा का यह विभाजन
राजस्थान के कोटा में प्रकाशित यह रिपोर्ट एक कड़वी सच्चाई को उजागर करती है। जब पत्रकारों ने मंत्रियों, विधायकों, अफसरों से पूछा कि क्या उनके बच्चे या पोते-पोतियाँ सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, तो अधिकतर जवाब आया-“नहीं, हमारे बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ते हैं” या “अभी स्कूल जाने योग्य नहीं हैं”। क्या यही जवाब किसी आम नागरिक का होता? अगर मंत्री या कलेक्टर के अपने बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते, तो क्या स्कूल की छतें गिरी होतीं? क्या मासूम बच्चे मलबे में दबकर मरते? क्या आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियाँ सिर्फ इसलिए स्कूल छोड़ देतीं क्योंकि वहाँ शौचालय नहीं है?
सत्ता को अनुभव नहीं, सिर्फ आँकड़े चाहिए
नीति निर्धारण अब आंकड़ों की बाज़ीगरी बनकर रह गया है। शिक्षा बजट में वृद्धि, स्कूलों की संख्या, छात्रवृत्तियों के नाम पर योजनाएँ-सब कुछ एक रिपोर्ट कार्ड की तरह पेश किया जाता है। मगर ज़मीनी हकीकत क्या है? शिक्षक चार जिलों की दूरी तय करके ड्यूटी करते हैं, स्कूलों में पीने का पानी तक नहीं, बच्चों को किताबें समय पर नहीं मिलतीं। और सबसे बड़ी विडंबना-इन हालातों को सुधारने की ज़िम्मेदारी उन्हीं के हाथ में है, जिनके अपने बच्चे इन हालातों से अछूते हैं।
क्या होना चाहिए अनिवार्य?
आख़िरकार यह सवाल बार-बार उठता है- “जब तक मंत्रियों, विधायकों और प्रशासनिक अधिकारियों के अपने बच्चे सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ेंगे, तब तक सुधार की कोई भी कोशिश दिखावटी होगी। ” क्या यह कानूनन अनिवार्य नहीं किया जा सकता कि: विधायक/सांसद बनने के लिए उम्मीदवार को यह शपथ लेनी होगी कि उसका बच्चा सरकारी विद्यालय में ही पढ़ेगा। सरकारी अधिकारियों (आईएएस/आईपीएस/आईआरएस) की पदस्थापना की शर्त में शामिल हो कि वे अपने बच्चों को निजी स्कूलों में नहीं भेजेंगे। जिन शिक्षकों के बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे हैं, उन्हें पहले अपने स्कूल पर भरोसा दिखाना होगा। यह कोई सनकी मांग नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में समानता और जवाबदेही का आधार है। जब आम नागरिक को सरकारी सेवाओं से संतुष्ट रहने की सलाह दी जाती है, तो नीति-निर्माताओं के लिए भी वह संतोष अनिवार्य क्यों नहीं?
आशा और आक्रोश का संगम
हमें यह स्वीकार करना होगा कि आम जनता की चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध बन चुकी है। जब कोई बच्चा सरकारी स्कूल की जर्जर छत के नीचे दम तोड़ता है, तब सिर्फ अफसोस जताने से कुछ नहीं बदलता। जब तक हम यह नहीं कहेंगे-
“पहले आपके बच्चे इस स्कूल में पढ़ें, फिर हमें यहाँ भेजिए,” तब तक शिक्षा सिर्फ चुनावी वादा बनी रहेगी।
वास्तविक उदाहरणों की मांग
दिल्ली सरकार ने कुछ हद तक यह पहल की कि उनके मंत्री सरकारी स्कूलों में समय-समय पर निरीक्षण करें, लेकिन निरीक्षण और अनुभूति में जमीन-आसमान का फर्क है। जो माँ-बाप हर दिन अपने बच्चे को पानी की बोतल के साथ भेजते हैं, वे सरकारी स्कूलों की सूखी टंकी नहीं समझ सकते। जो बच्चे हर दिन निजी बस से स्कूल जाते हैं, उन्हें स्कूल वैन की कमी कभी नहीं चुभेगी।
मीडिया की भूमिका
यह बात सराहनीय है कि दैनिक भास्कर जैसे समाचार पत्र इस विषय को सामने ला रहे हैं। जब मुख्यधारा मीडिया तमाशे और सनसनी से आगे बढ़कर व्यवस्था के मूल पर चोट करता है, तब जागरूकता की शुरुआत होती है। ऐसे प्रयासों को और मजबूत करने के लिए ज़रूरी है कि हम, आप और हर पाठक इसे जन-चर्चा का हिस्सा बनाएँ।
एक आम नागरिक की घोषणा
हर मतदाता को आने वाले चुनावों में यह एक सवाल तय करना चाहिए-“आपका बच्चा सरकारी स्कूल में पढ़ता है या नहीं?” यदि नहीं, तो उसे हमारे बच्चों के भविष्य की योजनाएँ बनाने का अधिकार नहीं।
शिक्षा के लोकतांत्रिककरण की माँग
शिक्षा सिर्फ सेवा नहीं, यह लोकतंत्र का आधार स्तंभ है। और जब यह स्तंभ एक वर्ग विशेष के लिए ‘निजी सुविधा’ और बाकी देश के लिए ‘सरकारी मजबूरी’ बन जाए, तो असमानता अपने चरम पर होती है।
सरकारी स्कूल तब तक नहीं सुधरेंगे, जब तक उनकी छतों के नीचे ‘किसी मंत्री का बेटा’ किताब न खोले। जब तक कोई ‘अफसर की बेटी’ लाइन में खड़े होकर मिड डे मील न खाए। जब तक कोई ‘विधायक का पोता’ ब्लैकबोर्ड पर ए.बी.सी.डी न लिखे।
शिक्षा का अधिकार केवल किताबों में नहीं, सच्चाई में होना चाहिए। यदि हम सच में चाहते हैं कि सरकारी स्कूल सुधरें- तो पहला सुधार वहीं से शुरू होना चाहिए, जहाँ से नीति बनती है-सत्ता के गलियारों से।