Tuesday, December 2, 2025
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“गिरती छतें, गिरती ज़मीर: झालावाड़ हादसा और हमारे निर्माण की नींव में छुपी मौत”

-डॉ. प्रियंका सौरभ-

राजस्थान के झालावाड़ में स्कूल की छत गिरने से मासूम बच्चों की जान चली गई। खबर आते ही दिल दहल गया। तस्वीरें आईं, जिनमें बच्चों की कॉपियाँ, बोतलें, जूतियाँ मलबे में दबी हुई थीं। कोई इसे दुर्घटना कहेगा, लेकिन हमारे लिए यह एक सुनियोजित हत्या है-ऐसी हत्या, जिसमें कातिल का चेहरा छिपा होता है लेकिन अपराध हर ईंट पर लिखा होता है।

हम ठेकेदार हैं। हमने ही ये दीवारें खड़ी की थीं। हम मिस्त्री हैं, जिनके हाथों से मजबूती की उम्मीद की जाती है। लेकिन जब ईमान बिक जाए, सीमेंट में बालू ज़्यादा हो, तो इमारतें नहीं, कब्रें बनती हैं। आज झालावाड़ की स्कूल इमारत सिर्फ नहीं गिरी, हमारी ज़मीर गिर गई है। एक-एक ईंट चीखकर बता रही है कि कमीशन के लालच में कैसे दीवारें खड़ी नहीं की गईं, मौत की नींव डाली गई।

घटनास्थल पर नेता आएंगे। दो शब्द कहेंगे-“हम दुखी हैं, जाँच होगी, दोषी नहीं बख्शे जाएंगे।” फिर कुछ मुआवज़े की घोषणा होगी। शायद 2 लाख, 5 लाख, या 10 लाख। लेकिन जिन माताओं ने अपने बच्चों को सुबह ‘जा बेटा स्कूल पढ़ने जा’ कहकर भेजा था, अब उन्हें कफ़न में लपेट कर ले जाना पड़ा। क्या कोई मुआवज़ा उनके आंगन की हँसी लौटा सकता है?

यह झालावाड़ की अकेली घटना नहीं है। बिहार में स्कूल की दीवार गिरी थी, जिसमें तीन बच्चे मर गए। हरियाणा के एक सरकारी अस्पताल की छत गिरी थी-सौभाग्य से कोई घायल नहीं हुआ, लेकिन क्या वह चेतावनी नहीं थी? मध्य प्रदेश में बना पुल उद्घाटन से पहले ही दरक गया था। हर जगह एक ही कहानी है-ठेकेदारी, मिलीभगत और लापरवाही। बिल्डिंग पास कराने के लिए रिश्वत, निर्माण में घटिया सामग्री, और सरकारी विभागों की आंखों में पट्टी।

जब स्कूल जैसी जगह, जो बच्चों के सपनों की पाठशाला होनी चाहिए, वो कब्रिस्तान बन जाए-तो सवाल सिर्फ भवन का नहीं होता। सवाल है कि इस देश में ज़िम्मेदारी नाम की कोई चीज़ बची भी है या नहीं? जब पेपर लीक होते हैं, जब शिक्षकों की भर्ती में घोटाला होता है, जब स्कूल भवन गिरते हैं, तो असल में हमारी शिक्षा व्यवस्था की लाश सामने आती है।

यह बहुत आसान है कि हम कह दें-“सरकार दोषी है”, “नेता दोषी हैं”, “अधिकारी दोषी हैं”। हाँ, वे दोषी हैं। लेकिन क्या सिर्फ वही? क्या उस इंजीनियर ने आँख मूँद कर सर्टिफिकेट नहीं दिया था? क्या उस ठेकेदार ने जानबूझकर सस्ती सामग्री नहीं खरीदी थी? क्या हम पड़ोसी, समाज और पत्रकार खामोश नहीं रहे जब ईंटों की गुणवत्ता पर सवाल उठे? हम सब दोषी हैं। हर गिरती दीवार हमसे सवाल कर रही है-क्या अब भी तुम्हारी ज़मीर ज़िंदा है?

किसी इमारत की असली मज़बूती उसकी नीयत में होती है। जब एक शिक्षक, एक डॉक्टर, एक इंजीनियर या ठेकेदार अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाए, तभी कोई स्कूल, अस्पताल या पुल मज़बूत बनता है। वरना मजबूत दिखती दीवारें भी अंदर से खोखली होती हैं-और किसी दिन मासूम ज़िंदगियाँ निगल जाती हैं।

श्रद्धांजलि देना आसान है। फूल चढ़ा देना आसान है। दो मिनट मौन रख देना आसान है। मगर ज़रूरत है एक राष्ट्रीय आत्ममंथन की। हमें तय करना होगा-क्या हम ज़िंदगी को इतनी सस्ती समझते हैं कि उसे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ा दें? क्या हर हादसे के बाद बस मुआवज़ा और जाँच ही हमारी न्याय-प्रक्रिया है?

जरूरत है कि सरकार हर स्कूल भवन, सरकारी दफ्तर, अस्पताल और पुल का स्ट्रक्चरल ऑडिट करवाए। हर ठेकेदार का रिकॉर्ड सार्वजनिक किया जाए। निर्माण कार्यों में पारदर्शिता लाने के लिए “Live Monitoring System” लागू हो। निर्माण सामग्री की क्वालिटी की रैंडम चेकिंग हो, और दोषियों को सिर्फ सस्पेंड नहीं, सजा दी जाए।

आज झालावाड़ है, कल कोई और शहर होगा। आज कोई और माँ रो रही है, कल शायद हमारी बारी हो। अब भी अगर हम नहीं जागे, अब भी अगर ठेकेदारी का मतलब सिर्फ मुनाफा रहा, तो हर शहर का हर स्कूल एक संभावित कब्रगाह बनता जाएगा।

हम जिन स्कूलों को ‘भविष्य की फैक्ट्री’ कहते हैं, क्या हम उन्हें सचमुच सुरक्षित बना पा रहे हैं? या हम शिक्षा के नाम पर मौत की इमारतें खड़ी कर रहे हैं?

श्रद्धांजलि उन मासूमों को, जिनकी जान हमारी खामोशी और सिस्टम की सड़न ने ले ली। और एक चुभता हुआ सवाल-क्या अब भी तुम्हारी ज़मीर ज़िंदा है?

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