Thursday, March 13, 2025
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डिजिटल होली में रमती-बसती हमारी युवा पीढ़ी!

-सुनील कुमार महला-

होली रंगों का त्योहार है। इस बार शुक्रवार 14 मार्च को होली है। हर साल होली का त्योहार चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा तिथि को मनाया जाता है। होलिका दहन के दिन को छोटी होली के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार, फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में होलिका दहन किया जाता है। पाठक जानते होंगे कि हिरण्यकश्यपु के कहने पर होलिका भक्त प्रह्लाद को मारने के लिए अपनी गोद में बैठाकर अग्नि में प्रवेश कर गई, लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से भक्त प्रह्लाद तो बच गया और होलिका जल गई। बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि होली प्राकृतिक व कृत्रिम रंगों से खेली जाती है, समय के साथ होली खेलने के स्वरूप में भी बदलाव आए हैं। समय बदला तो होली त्योहार मनाने का ढंग व स्वरूप भी बदल गया। पहले फाल्गुन के महीना शुरू होते ही चंग, बांसुरी, डफ, ढ़ोल, नगाड़ा, स्वांग निकालना, होली पर धमाल गीत, हुड़दंग बाजी, हंसी-ठिठोली होती थी, आज भी होती है लेकिन पहले की तुलना में काफी कम है। आज का युग सोशल नेटवर्किंग साइट्स का युग है, इंटरनेट, मल्टीप्लेक्स, एंड्रॉयड मोबाइल फोन, लैपटॉप-कंप्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) या यूं कहें कि सूचना क्रांति, तकनीक और नवाचारों को अपनाने का युग है। ऐसे युग में वर्तमान में हमारी युवा पीढ़ी होली के दिन नशा करने, देर रात्रि तक डीजे पर डांस करने, और फूहड़ तथा पाश्चात्य संस्कृति के गीतों पर एंजॉय करने में ही अपनी वाहवाही समझते है। आज के समय में हमारा देश तेजी से डिजीटलीकरण की ओर अग्रसर हो रहा है। अब होली के दूसरे दिन यानी कि धुलंडी के दिन (रंग खेलने का दिन) भी अपने घरों से बाहर नहीं निकलते हैं। न पहले जैसी हुड़दंग बाजी रही है, न हंसी-ठिठोली और न ही रंग डालने, स्वांग रचने, धमाल गीत गाने जैसी परंपराएं ही अब रहीं हैं। डिजिटल प्रगति के साथ इन सबमें अभूतपूर्व कमी आई है और हमारे तीज-त्योहार भी अब कहीं न कहीं इस अंधी डिजीटलीकरण व्यवस्था में रच-बस से गये हैं। आज सोशल मीडिया जैसे वाटसअप, फेसबुक, एक्स, इंस्टाग्राम पर ही अपने यार- दोस्‍तों, रिश्तेदारों और परिजनों को गुलाल-अबीर (रंग) और रंग-बिरंगी पिचकारी भेज कर होली का डिजिटल आनंद लेते हैं। और तो और किसी मैसेज की भांति ही अब तो तीज-त्योहारों के अवसरों पर मिठाई तक भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स के ज़रिए ही भेज दी जाती है। होली पर भी ऐसा ही कुछ हो रहा है, किया जा रहा है। पाठकों को यह जानकर कोई आश्चर्य नहीं होगा कि अब तो धुलंडी का दिन (रंग खेलने का दिन) बीतने के बाद नहाने तक के लिए साबुन, शैंपू और पानी की बाल्टियां, टब तक भी डिजीटली ही भेजे जाने लगे हैं। यह बात सुनने में अजीब लग सकती है, लेकिन यह एक कटु सत्य है कि आजकल के सोशल मीडिया और इंटरनेट वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के बढ़ते चलन के साथ, अब ऑनलाइन होली(डिजिटल होली) मनाना आम बात सी हो गई है। आज के समय में रचनात्मक प्लेटफ़ॉर्म और सोशल मीडिया एडिटिंग ऐप रंगों और ख़ुशियों के त्यौहार होली के मौक़े पर ख़ास स्टिकर्स, ब्रश तथा रिप्ले जारी करने लगे हैं। पिक्स आर्ट अनेक प्रकार के होली स्टीकर्स जारी कर रहा है। आज तो होली खेलने के अनेक एप्स बिखरे पड़े हैं। कोरोना काल में लोग एक दूसरे से दूरी बनाकर मिलने के लिये मजबूर क्या हुए, होली खेलने के अनेक एप्स बाजार में आ गए। आज लोग इन एप्स और स्टिकर्स के ज़रिये एक दूसरे को डिजिटल अबीर-गुलाल से सराबोर कर रंगों का त्योहार ऐसे मना सकते हैं, जो शायद पहले कभी नहीं मनाया होगा। आज लोग ख़ास मौकों पर डिजिटल माध्यम के ज़रिये अपने प्रियजनों को बधाई व शुभकामनाएं देने में अपनेपन का एहसास महसूस करने लगे हैं। पिक्सआर्ट के स्टिकर्स, रिप्लेज़, मास्क और ब्रश के ज़रिये रंगों से बिना कोई जोख़िम उठाये होली का त्योहार मना सकते हैं। रंगों के इस त्यौहार पर कोई भी अपने प्रियजनों, रिश्तेदारों को अपनी पसंद के रंगीन स्टिकर्स भेजकर, पिचकारी व डिजिटल मिठाई भेजकर होली की बधाई दे सकते हैं। इसका सीधा सा मतलब यह है कि आज के समय में डिजिटल तकनीकों ने सूदूर निवास करने वाले अपने प्रियजनों, रिश्तेदारों के लिए बिना उनसे शारीरिक रूप से(फिजीकली) मिले ही होली के रंग खेलना, शुभकामनाएं व मिठाई भेजना और हंसी-ठिठोली करना संभव बना दिया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि पिक्सआर्ट के साथ आज के इस डिजिटल समय में हम अपनी कल्पनाशीलता से कोई भी तरह का रंगीन डिज़ाइन बनाकर ख़ुशी, उमंग व पूरे उत्साह व उल्लास के साथ घर बैठे ही होली मना सकते हैं। सच तो यह है कि आज होली ही नहीं हमारे देश के त्योहारों पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स का आक्रमण हो चुका है। आज होली खेलने के लिए न घर से बाहर कहीं मैदान या गली मोहल्लों में जाने की आवश्यकता रही है और न ही कहीं सूदूर क्षेत्र की यात्रा करने की ही आवश्यकता रही है। आज घर पर बैठे-बैठे ही एंड्रॉयड मोबाइल, लैपटॉप हाथ में लेकर होली खेली जा सकती है। सच तो यह है कि डिजिटल क्रांति के इस युग में त्योहार तो क्या हर रिश्ते को एंड्रॉयड मोबाइल, लैपटॉप पर ही निपटा दिया है। डिजिटल क्रांति के इस युग में न तो अब कपड़े धोने का झंझट रहा है और न ही रंगों से स्किन खराब होने का भय। पहले होली के दिन रंग खेलने के लिए लोग सिर्फ अपनी गली मोहल्ले तक ही सीमित थे। आज इंस्टाग्राम, वाट्सएप एवं फेसबुक(सोशल नेटवर्किंग साइट्स) के इस युग में वे घर पर बैठे-बैठे ही मोहल्ला छोड़िए, पूरी दुनिया संग इको फ्रेंडली के साथ-साथ पाकेट फ्रेंडली होली भी मनाने लगे हैं। न हींग लगे और न ही फिटकरी। डिजिटल होली लोगों को असली होली की तुलना में पसंद आने लगी है, लेकिन ऐसा करके हम हमारी त्योहारी संस्कृति, परंपराओं, हमारे सांस्कृतिक विरासत से कहीं न कहीं दूर होते चले जा रहे हैं। आज होली के रंग डिजीटलीकरण में उड़ रहें हैं, वास्तव में धरातल पर नहीं। या यूं कहें कि ग्राउंड में होली कम खेलने को तवज्जो दी जा रही है। बहरहाल, यहां यह कहना बिलकुल भी ग़लत नहीं होगा कि हमारे आधुनिक जीवन में प्रवेश करने वाली रचनात्मक तकनीक ने हमारे तीज-त्योहारों को मनाने के हमारे तरीकों को भी आज काफी हद तक बदल दिया है। आज डिजिटल रंगोलियां सजाई जाती हैं। वर्चुअली रंग खेले जा रहे हैं, वास्तविक रंगों को स्थान बहुत कम रह गया है। सच तो यह है कि आज के सूचना क्रांति और तकनीक के इस युग में होली के पर्व पर जितनी डिजीटल पिचकारियां चल रही हैं, धरातल पर उसका प्रतिशत बहुत ही कम रह गया है। संक्षेप में कहें तो आज एआई युग में होली जैसे बड़े व पावन त्योहार पर हर कोई असलियत में रंगों से भरी पिचकारी से खेलें या नहीं खेलें, लेकिन सोशल मीडिया पर पिचकारी भर कर अपनों पर खूब रंग बिखेर रहे हैं। अंत में यही कहूंगा कि अगर हमें अपने त्योहारों की पवित्रता बचानी है तो हमें कम से कम इन्हें बाजार पैसे के मकड़जाल, आधुनिकता से बचाकर रखना होगा। त्योहार हमारे देश की संस्कृति और परंपराओं से जुड़े हुए हैं। समय के साथ बदलाव कुछ हद तक ठीक कहें जा सकते हैं लेकिन ये इतने अधिक न हों कि त्योहारों का कोई औचित्य या अर्थ ही न रह जाए। होली के त्योहार पर एक दूसरे के यहां प्रत्यक्ष जाकर आपसी मेलजोल, सौहार्द, सद्भावना, प्रेम, प्यार और रिश्तों की धुरी पर जो रंग लगाए जाते हैं, वे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जाकर कभी भी नहीं लगाए जा सकते हैं। वर्चुअल वर्ल्ड, आखिर वर्चुअल वर्ल्ड ही होता है, वहां भावनाएं नहीं होतीं हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि त्योहार हमारे सांस्कृतिक, पारंपरिक जीवन को हरा-भरा करते हैं। ये हमारी सनातन भारतीय संस्कृति, परंपराओं का अभिन्न हिस्सा ही नहीं, बल्कि हमारी धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के भी प्रतीक हैं। पर्व किसी भी धर्म या संप्रदाय का क्यों न हो, हम सभी भारतवासी उसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। एक-दूसरे को बधाइयां और शुभकामनाएं देते हैं। प्रत्यक्ष बधाई व शुभकामनाएं देना, रंग लगाना एक अलग बात है और वर्चुअली रंग लगाना एक अलग बात है, हमें इस बात को समझना चाहिए। हमें यह याद रखना चाहिए कि घर के बने पकवान और मिष्ठान से जो स्वागत-सत्कार हो सकता है, वह वर्चुअली भेजी गई मिठाई से कभी संभव नहीं हो सकता है। वर्चुअल वर्ल्ड पर बनावटीपन दिखता है, वह वास्तविक वर्ल्ड नहीं है। आज तकनीक का बाजार हमारी संवेदनाओं का अतिक्रमण कर रहा है। आपस में सौहार्द और सद्भावना के साथ मिलकर होली खेलने में जो आनंद है, उस आनंद की अनूभूति वर्चुअल वर्ल्ड में कभी भी संभव नहीं हो सकती है, भले ही तकनीक के क्षेत्र में हम कितनी भी प्रगति और तरक्की क्यों न कर लें। वास्तव में हमें हमारी सनातन संस्कृति, परंपराओं का निर्वहन करते हुए पुनः सात्विक, सादगी भरे त्योहार मनाने की ओर लौटना होगा, तभी हमारी सनातन संस्कृति, संस्कार व त्योहारों को मनाने का सही अर्थ होगा और हम स्वयं को अधिक आनंदित, उल्लास से पूर्ण महसूस कर सकेंगे।

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